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________________ पुण्य पदार्थ : (ढाल : २) ३१. ३२. वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र ये चारों कर्म पुण्य और पाप दोनों रूप हैं। पुण्य रूप वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म जिस करनी से होते हैं वह करनी निरवद्य है । इस करनी की आज्ञा भगवान देते हैं२४ । ३३. ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्म ये चारों एकान्त पाप हैं। जिस करनी से इन कर्मों का बंध होता है वह जिन-आज्ञा में नहीं है ३ । ३८. पुण्य पाप की करनी का अधिकार भगवती सूत्र के आठवें शतक के नवें उद्देशक में आया है। उसका न्याय सम्यक् दृष्टि समझते हैं२५ | ३४-३७. करनी कर निदान - फल की इच्छा न करने से, शुभ परिणाम और सम्यक्त्व से, समाधि योग में प्रवर्तन से, क्षमापूर्वक परिषह सहन करने से, पाँचों इन्द्रियों को वश करने से, माया और कपट से रहित होने से, ज्ञानादि की उपासना से, श्रमणत्व से, आठ प्रवचन माताओं से संयुक्त होने से, धर्म-कथा कहने से इन दस बोलों से जीव के कल्याणकारी कर्मों का बंध होता है। ये कल्याणकारी कर्म पुण्य हैं और इनको प्राप्त करने की करनी भी स्पष्टतः निरवद्य है। ये दस बोल स्थानाङ्ग सूत्र के दसवें स्थानक में कहे हैं। देख कर पुण्य करनी की पहिचान करो । - अन्न पुण्य, पान पुण्य, स्थान पुण्य, शय्या पुण्य, वस्त्र पुण्य, मन पुण्य, वचन पुण्य, काया पुण्य और नमस्कार पुण्य - इस तरह नौ पुण्य (भगवान ने ) कहे हैं। १६१ ज्ञाणावरणीय आदि चार पाप कर्म वेदनीय आदि चार पुण्य कर्मों की करनी निरवद्य है भगवती ८.६ का उल्लेख दृष्टव्य कल्याणकारी कर्म बंध के दस बोल निरवद्य हैं नौ पुण्य
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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