SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी १४-१५ संक्षेप में 'इन्द्रियों से लब्ध सुख दुःख रूप ही हैं क्योंकि वे पराधीन हैं, बाधा सहित हैं, विच्छिन हैं; विषम हैं और बंधन के कारण हैं । वे आत्म-समुत्थ - विषयातीत, अनुपम, अनन्त और अव्युच्छिन्न नहीं होते ।" इस तरह स्वयंसिद्ध है कि पौद्गलिक सुख वास्तविक सुख रूप नहीं केवल सुखाभास हैं। १४. पुण्य की वाञ्छा से पाप का बंध होता है (गा० ५२-५३ ) : स्वामीजी ने इस ढाल के चौथे दोहे में कहा है : 'पुन पदारथ शुभ कर्म छै, तिणरी मूल न करणी चाय ।' पुण्य की इच्छा क्यों नहीं करनी चाहिए - इसी बात को यहाँ विशेष रूप से स्पष्ट किया है । ! पुण्य की कामना का अर्थ क्या है ? उसका अर्थ है कामभोगों की इच्छा करना, विषय-सुखों को भोगने की इच्छा करना । जो कामभोग - विषय - सुखों को पाने या भोगने की इच्छा करता है उसके एकान्त पाप का बंधन होता है, यह सहज ही बोध-गम्य है । इससे संसार में बार-बार जन्म-मरण करना पड़ता है । भव-भ्रमण की परम्परा बढ़ती है । संसार की वृद्धि होती है। नरक- निगोद के दुःख भोगने पड़ते हैं। विषय-सुख की कामना से उलटा वियोग-जनित दुःख होता है । उत्तराध्ययन में कहा है 'भोगा..... विसफलोवमा ?' भोग विषफल की तरह हैं। 'पच्छा कडुयविवागा' वे भोग के समय मधुर लगते हैं पर विपाकावस्था में उनका फल कटु होता है। 'अणुबंध दुहावहार भोग परंपरा दुःख के कारण है। उसी सूत्र में कहा है- 'जे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई ।' -जो कामभोग में गृद्ध होता है वह अकेला नरक में जाता है। स्वामीजी ने जो कहा है उसका आधार ऐसे ही आगम-वाक्य हैं। १५. पुण्य - बंध के हेतु ( गा० ५४-५६ ) : १७३ इन गाथाओं में स्वामीजी ने निम्न सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं : (१) पुण्य की कामना से पुण्य उत्पन्न नहीं होता। वह धर्म-करनी का सहज फल है । १. (क) प्रवचनसार १.७६ (ख) वही १.१३ २. उत्त० १६.११ ३. उत्त० ५.५
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy