SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ नव पदार्थ से उत्पन्न नहीं होते । आत्मा के प्रदेशों से परवस्तु के एकान्त क्षय होने पर अपने आप वस्तु धर्म के रूप में प्रगट होते हैं अतः स्वाभाविक हैं। (५) सांसारिक सुखों का आधार पौद्गलिक वस्तुएँ होती हैं। इन सुखों के अनुभव के लिए पुद्गलों के भोग की आवश्यकता रहती है। मोक्ष सुख में ऐसी बात नहीं है। उसमें वाह्याधार की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरण स्वरूप पौद्गलिक सुख वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शब्द संबंधी भोग उपभोग से सम्बन्ध रखते हैं जबकि मोक्ष सुख के लिए इन भोगोपभोग वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती। वे आत्मज्ञान में सहज रमणरूप हैं। इस तरह एक सापेक्ष है और दूसरा निरपेक्ष । (६) पौद्गलिक सुख नाशवान है। 'कुसग्गमित्ता इमे कामा' (उत्त० ७:२४)-काम भोग कुशाग्र पर स्थित जलबिन्दु के समान अस्थिर हैं। इष्ट वस्तुओं का क्षण-क्षण वियोग देखा जाता है। यह वियोग स्वयं दुःख रूप है। शरीर और इन्द्रियों के स्वयं नाशवान होने से उनसे प्राप्त सुख भी नाशवान हैं। आत्मिक सुख इन्द्रिय जन्य नहीं होते और इसलिये शाश्वत हैं। आत्मा अमूर्त है। वह नित्य पदार्थ है। अधिक सुख उसका निजी गुण है। आत्मा की तरह उसका सुख भी अमर है। आत्मिक सुख अर्थात् शुद्धात्मा का सुख । वह आत्मा के आवरण के क्षय होने से प्रकट होता है, अतः वह सुख आत्मा की तरह ही अक्षय, अव्यय, अव्याबाध और अनन्त है। (७) पौद्गलिक सुख भोगते समय अच्छे लगते हैं, परन्तु फलावस्था में दुःखदायी होते हैं। जैसे किंपाक फल वर्ण, गंध, रस और स्पर्श में सुन्दर और खाने में स्वादिष्ट होता है पर पचने पर प्राणों को ही हरण कर लेता है, वैसे ही पौद्गलिक सुख भोगते समय सुखप्रद लगते हैं पर विपाक अवस्था में दारुण दुःख देते हैं | उनके सुख क्षणिक हैं और दुःख की परम्परा अनन्त है। मोक्ष सुख जैसे आरम्भ में होते हैं वैसे ही अन्त में होते हैं। वे हमेशा सुख रूप होते हैं। १. उत्त० ३२.२० जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा। ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे।। उत्त० १४.१३ खणमेंत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।। २.
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy