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________________ पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी १३ ऋद्धिमत, तेजस्वी, इच्छानुसार रूप बनानेवाले, नवीन वर्ण के समान और अनेक सूर्यों की दिप्तिवाले होते हैं। गृहस्थ हों या भिक्षु जिन्होंने कषायों को शान्त कर दिया है, वे संयम और तप का पालन कर देवलोक में जाते हैं।" १३. पौद्गलिक सुखों का वास्तविक स्वरूप (गा० ४६-५१) : पुण्य से प्राप्त सुखों का वर्णन कर स्वामीजी प्रस्तुत गाथाओं में सार रूप से कहते । हैं-"इन सुखों को जो सुख कहा गया है वह संसारापेक्षा से। इस संसार में जो नाना प्रकार के दुःख हैं उनकी अपेक्षा से ये सुख हैं । यदि उनकी तुलना मोक्ष-सुखों-आत्मिक सुखों से की जाय तो ये सुखाभास रूप ही प्रतीत होंगे।" यही बात स्वामीजी ने प्रारम्भिक दोहों में कही है। इस पर टिप्पणी १(३), (४) में कुछ प्रकाश डाला जा चुका है। पौद्गलिक सुख और मोक्ष-सुख का पार्थक्य इस प्रकार है : (१) पौद्गलिक सुख सापेक्ष होते हैं। एक अवस्था में अच्छे लगते हैं दूसरी में वैसे नहीं लगते। जैसे जो भोजन निरोगावस्था में स्वादिष्ट लगता है वही रोगावस्था में रुचिकर नहीं होता। मुक्त आत्मा के सुख निरंतर सुख रूप होते हैं। (२) पौद्गलिक सुख स्थायी नहीं होते, प्राप्त होकर चले भी जाते हैं। मुक्ति के सुख स्थायी हैं; एक बार प्राप्त होने पर त्रिकाल स्थिर रहते हैं। (३) पौद्गलिक सुख विभाव अवस्था-रुग्णावस्था के सुख हैं; मोक्ष-सुख शुद्ध आत्मा का सहज स्वाभाविक आनन्द है। जिस तरह पाण्डु रोग वाले व्यक्ति को सभी वस्तुएं पीली ही पीली नजर आती हैं हालांकि वे वैसी नहीं होती वैसे ही इन्द्रियों के विषयों से सम्बन्धित पौदगलिक सुख मोहग्रस्त मनुष्य को सुख रूप लगते हैं हालांकि वे वास्तव में वैसे नहीं होते। विषय सुखों में मधुरता और आनन्द का अनुभव जीव की विकारग्रस्त अवस्था का सूचक है जबकि मोक्ष-सुख आत्मा की स्वाभाविक स्थिति का परिणाम है। स्वामीजी ने इसे एक मौलिक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया है। पाँव-रोगी को खुजलाना सुखप्रद होता है। जैसे खुजलाना पाँव-रोग के कारण सुख रूप मालूम देता है वैसे ही वैषयिक-पौद्गलिक सुख कभी सुखप्रद नहीं होते पर मोहग्रस्त आत्मा को मधुर लगते हैं। (४) पौद्गलिक सुख जीव के साथ पुण्य रूपी पुद्गल के संयोग के कारण उत्पन्न होते हैं-वे पुण्योदय से होते हैं पर आत्मिक सुख जीव के साथ पर वस्तु के संयोग
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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