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________________ १७० नव पदार्थ की सुन्दरता, वर्ण आदि की श्रेष्ठता, मधुर प्रिय बोली आदि) प्राप्त होते हैं।" __ स्वामीजी पुनः कहते हैं . 'इतना ही नहीं देवगति और पल्योपम सागरोपम के दिव्य सुख भी पुण्य के ही फल हैं।" पुण्योदय से प्राप्त सांसारिक सुखों की यह परिगणना उदाहरण स्वरूप है। जो भी सांसारिक सुख हैं वे पुण्य के फल हैं। सुन्दर शरीर रूप से, सुन्दर इन्द्रिय रूप से; सुन्दर वर्णादि रूप से, सुन्दर उपभोग-परिभोग पदार्थों के रूप में और इसी तरह अन्य अनेक रूप से पुद्गलों का शुभ परिणमन पुण्योदय के कारण ही होता है। पुण्योदय से शुभ रूप में परिणमन कर पुद्गल जीव को संसार में नाना प्रकार के सुख देते हैं, जिनकी गिनती सम्भव नहीं। ___ स्वामीजी का उपर्युक्त कथन उत्तराध्ययन के अध्ययन ३ से समर्थित है। वहाँ कहा गया है : ____ "उत्कृष्ट शील के पालन से जीव उत्तरोत्तर विमानवासी देव होते हैं; सूर्य-चन्द्र की तरह प्रकाशमान होते हुए वे मानते हैं कि हमारा यहाँ से च्यवन नहीं होगा। देव संबधी सुख प्राप्त हुए और इच्छानुसार रूप बनाने की शक्तिवाले देव सैकड़ों पूर्व वर्षों तक विमानों में रहते हैं। वे देव अपने स्थान का आयु-क्षय होने पर वहाँ से च्यवकर मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं; वहाँ उन्हें दस अंगों की प्राप्ति होती है। क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, पशु और दास-दासी-ये चार काम स्कन्ध प्राप्त होते हैं। वह मित्र, ज्ञाति और उच्च गोत्रवाला होता है। वह सुन्दर, निरोग, महाबुद्धिशाली, सर्वप्रिय, यशस्वी और बलवान होता इसी सूत्र में अन्यत्र कहा है : "गृहस्थ हो या साधु, सुव्रतों का पालन करने वाला देवलोक में जाता है। गृहवासी सुव्रती औदारिक शरीर को छोड़कर देवलोक में जाता है। जो संवृत भिक्षु होता है वह या तो सिद्ध होता है या महाऋद्धिशाली देव । वहाँ देवों के आवास उत्तरोत्तर ऊपर रहे हुए हैं। वे आवास स्वल्प मोहवाले द्युतिमान देवों से युक्त हैं। वे देव दीर्घ आयुवाले १. २. उत्त० ३.१४-१८ उत्त० ५.२२, २४-२८
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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