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(२) निरवद्य योग, भली लेश्या, भले परिणाम से निर्जरा होती है, पुण्य आनुषंगिक रूप से सहज ही लगते हैं ।
नव पदार्थ
(३) निर्जरा की करनी से ही पुण्य लगते हैं। पुण्य प्राप्त करने की अन्य क्रिया नहीं है ।
स्वामी कार्त्तिकेय लिखते हैं: "क्षमा, मार्दव आदि दस प्रकार के धर्म पापकर्म का नाश करने वाले और पुण्य कर्म को उत्पन्न करने वाले कहे गये हैं परन्तु पुण्य के प्रयोजन- इच्छा से इन्हें नहीं करना चाहिए । जो पुण्य को भी चाहता है वह पुरुष संसार ही को चाहता है क्योंकि पुण्य सुगति के बंध का कारण है और मोक्ष पुण्य के भी क्षय से होता है। जो कषाय सहित होता हुआ विषय सुख की तृष्णा से पुण्य की अभिलाषा करता है उसके विशुद्धता दूर है। पुण्य विशुद्धि मूलक हैं-विशुद्धि से ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि पुण्य की वांछा से तो पुण्य बंध होता नहीं और वांछारहित पुरुष के पुण्य का बंध होता है ऐसा जानकर यतीश्वरो ! पुण्य में आदर ( वांछा ) मत करो।"
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स्वामीजी के मन्तव्य और स्वामी कार्त्तिकेय के मन्तव्य में केवल वस्तु-विषयक समानता ही नहीं शब्दों की भी आश्चर्यजनक समानता है ।
श्लोक ४०८' का भावार्थ देते हुए पं० महेन्द्रकुमारजी जैन लिखते हैं : “सातावेदनीय, शुभआयु, शुभनाम, शुभगोत्र तो पुण्यकर्म कहे गये हैं। चार घातिया कर्म, असातावेदनीय, अशुभ नाम, अशुभ आयु और अशुभ गोत्र ये पापकर्म कहे गये हैं। दस लक्षण धर्म (क्षमा, मार्दव आदि) को पाप का नाश करने वाला और पुण्य को उत्पन्न करनेवाला कहा है सो केवल पुण्योपार्जन का अभिप्राय रख कर इनका सेवन उचित नहीं क्योकि पुण्य भी बंध ही है। ये धर्म तो पाप जो घातिया कर्म हैं उनका नाश करनेवाले हैं और अघातियों में अशुभ प्रकृतियों का नाश करते हैं। पुण्यकर्म संसार के अभ्युदय को
१. द्वादशानुप्रेक्षा ४०८ - ४११
एदे दहप्पयारा, पावकम्मस्स णासिया भणिया । पुण्णस्स य सजंयणा, पर पुण्णत्थं ण कायव्वा ।। पुण्णं पि जो समच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि । पुणं सग्गइ हेउं पुण्णखयेणेव णिव्वाणं ।। जो अहिलसेदि पुण्णं, सकसाओ विसयसोक्खतण्हाए । दूर तस्स विसोही, विसोहिमूलाणि पुष्णाणि । । पुण्णासए ण पुण्णं, जदो णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती । इय जाणिऊण, जइणो, पुण्णेवि म आयरं कुणा । । पाद-टि० १ का प्रथम श्लोक
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