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________________ नव पदार्थ: २. पुण्य शुभ कर्म और पुद्गल की पर्याय है (ढाल गाथा १) : इस गाथा में पुण्य को पुद्गल की पर्याय बताते हुए उसकी परिभाषा दी गई है। इस विषय में टिप्पणी १ अनुच्छेद ५ में कुछ प्रकाश डाला जा चुका है। स्वामीजी कहते हैं-आत्मा के साथ बंधे हुए कर्म-वर्गणा के शुभ पुद्गल यथाकाल उदय में-फल देने की अवस्था में आते हैं और शुभ फल देते हैं। इन्हें ही पुण्य-कर्म कहते हैं। जिस तरह तेल और तिल, धृत और दूध, धातु और मिट्टी ओतप्रोत होते हैं उसी तरह जीव और कर्म-वर्गणा के पुद्गल एक क्षेत्रावगाही होकर बन्ध जाते हैं। यह बन्ध या तो अशुभ कर्म-पुदगलों का होता है या शुभ कर्म-पुद्गलों का। शुभ परिणामों से जो कर्म बन्धते हैं वे शुभ रूप से और जो अशुभ परिणामों से बन्धते हैं वे पाप रूप से उदय में आते हैं। बन्धे हुए कर्म जब तक फलावस्था में नहीं आते तब तक जीव के सुख-दुःख जरा भी नहीं होता । उदय में आने तक कर्म-पुद्गल सत्तारूप में रहते हैं। कर्म के उदयवास्था में आने पर जब सांसारिक सुख प्राप्त होते हैं तो बन्ध पुण्य कर्मों का कहा जायेगा और विविध प्रकार के दुःख उत्पन्न करने पर बन्ध पाप कर्मों का कहा जायेगा। जीव को एक तालाब मानें तो बन्ध उसमें आबद्ध जल रूप होगा। उस तालाब से निकलते हुए-भोगे जाते हुए-जल रूप पुण्य पाप होंगे। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं : “जिसके मोह-राग-द्वेष हैं उसके अशुभ परिणाम होते हैं। जिसके चित्तप्रसाद-निर्मल चित्त होता है उसके शुभपरिणाम होते हैं। जीव के शुभ परिणाम पुण्य हैं और अशुभ परिणाम पाप । शुभ-अशुभ परिणामों से जीव के जो कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है वह क्रमशः द्रव्य-पुण्य और द्रव्य पाप हैं।" १. तेरा द्वार (आचार्य भीषणजी रचित) : तालाब द्वार २. पञ्चास्तिकाय २.१३१-२ : मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि । विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो।। सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावंति हवदि जीवस्स। दोण्हं पोग्गालमेत्तो भावो कम्मत्तणं पत्तो ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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