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पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी ५
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आत्मिक सुख की तरह ये निराकुल नहीं होते । ये तृष्णा को उत्पन्न करते हैं और कर्म-बंधन के कारण हैं । जहाँ इन्द्रिय-सुख है वहीं रागादि दोषों की सेना होती है और बंधन भी अवश्यंभावी हैं।
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(५) पुण्य पदार्थ शुभ - कर्म है अतः अकाम्य है (दो० ५ ) :
जीव का परिणमन दो तरह का होता है या तो वह मोह-राग-द्वेष आदि भावों में परिणमन करता है अथवा शुभ ध्यान आदि भावों में। मोह-राग-द्वेष आदि अशुभ परिणाम है और धर्म-ध्यानादि भाव शुभ परिणाम । संसारी जीव सर्व दिशाओं में अनेक प्रकार की पुद्गल-वर्गणाओं से घिरा हुआ है। उनमें एक वर्गणा ऐसी है जिसके पुद्गल आत्म-प्रदेशों में प्रवेश कर उनके साथ बंध सकते हैं। जब जीव अशुभ भावों में परिणमन करता है तब इस वर्गणा के अशुभ पुद्गल आत्मा मे प्रवेश कर उसके साथ बंध जाते हैं जब जीव शुभ भावों में परिणमन करता है तब इस वर्गणा के शुभ पुद्गल आत्मा के साथ बंधते हैं । पुद्गलों की यह विशिष्ट वर्गणा कर्म-वर्गणा कहलाती है और बंधे हुए शुभ-अशुभ कर्म विपाकावस्था में सुख-दुःख फल देने की अपेक्षा से पुण्य कर्म और पाप कर्म कहलाते हैं। इस तरह पुण्य कर्म और पाप कर्म दोनों ही पुद्गल की कर्म-वर्गणा के विशिष्ट परिणाम प्राप्त स्कन्ध हैं
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जीव चेतन है। पुद्गल जड़ है। पुद्गल की पर्याय होने से कर्म भी जड़ है। स्वामीजी कहते हैं कि चेतन जीव जड़ कर्मों की कामना कैसे कर सकता है ? पुण्य और पाप जड़ कर्म ही तो उसके संसार-भ्रमण के कारण है।
आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं- "अशुभ कर्म कुशील हैं-बुरा हैं और शुभ कर्म सुशील है - अच्छा है ऐसा जगत् जानता है । परन्तु जो प्राणी संसार में प्रवेश कराता है वह शुभ कर्म सुशील - अच्छा कैसे हो सकता है ? जैसे लोहे को बेड़ी पुरुष को बांधती है और सुवर्ण की भी बांधती है उसी तरह शुभ तथा अशुभ कृत कर्म जीव को बांधते हैं। अतः जीव तू इन दोनों कुशीलों से प्रीति अथवा संसर्ग मत कर। कुशील के साथ संसर्ग और राग से जीव की स्वाधीनता का विनाश होता है। जो जीव परमार्थ से दूर हैं वे अज्ञान से पुण्य को अच्छा मान उसकी कामना करते हैं। पर पुण्य संसार-गमन का हेतु हैं। अतः तू पुण्य कर्म के प्रीति मत कर' । "
स्वामीजी और आचार्य कुन्दकुन्द की विचारधारा में अद्भुत सामञ्जस्य है।
समयसार ३ : १४५-१४७, १५४, १५०
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