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नव पदार्थ
(१) संसारासक्त मनुष्य की दृष्टि और (२) उदासीन ज्ञानी पुरुष की दृष्टि । जो कामभोगों में गृद्ध हैं वे कहते हैं-"हमने परलोक नहीं देखा और इन कामभोगों का आनन्द तो आँखों से देखा है-प्रत्यक्ष है। ये वर्तमान काल के कामभोग तो हाथ में आए हुए हैं। भविष्य में कामभोग मिलेंगे या नहीं कौन जानता हैं ? और यह भी कौन जानता है कि परलोक है या नहीं, अतः मैं तो अनेक लोगों के साथ रहूँगा।" ज्ञानी कहते हैं-“कामभोग शल्यरूप हैं। कामभोग विष रूप हैं, कामभोग जहर के सदृश हैं। सर्व कामभोग दुःखरूप हैं । अनर्थ की खान हैं।
इस दृष्टि भेद के कारण जो संसारी प्राणी हैं वे पुण्य की शब्दादि कामभोगों की प्राप्ति का कारण मान उपादेय मानते हैं और ज्ञानी शब्दादि कामभोगों को विष तुल्य समझ वैषयिक सुखों के उत्पादक पुण्य पदार्थ को हेय मानते हैं।
स्वामीजी कहते हैं ज्ञानी की दृष्टि ही यथार्थ दृष्टि है, क्योंकि वह मोह रहित शुद्ध दृष्टि है। संसारासक्त प्राणी की दृष्टि मोहाच्छन्न होती है जिससे वह वस्तु के वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाता और जो वास्तव में सुख नहीं हैं उनमें सुख मान लेता है। जिस तरह नीम के पत्ते वास्तव में कड़वे होते हैं, परन्तु सर्प के डंस लेने पर शरीर-व्याप्त विष के कारण वे मीठे लगते हैं वैसे ही पुण्यजात इन्द्रिय-सुख वास्तव में दुःख रूप ही हैं पर मोह कर्म की प्रबलता के कारण वे अमृत के समान मधुर लगते हैं। (४) पुण्योत्पन्न सुख पौद्गालिक और विनाशलीला हैं (दो० २४)
पुण्योदय से प्राप्त सुख भौतिक हैं। ये सुख आत्मा के स्वाभाविक नहीं पर आत्मा से भिन्न पौद्गालिक वस्तुओं से सम्बन्धित होते हैं। यं सुख संयोगिक और वैषयिक हैं, आत्मा के सहज आनन्द स्वरूप नहीं।
पौद्गलिक वस्तुओं पर आधारित होने के साथ-साथ ये सुख स्थिर नहीं हैं। ये शरीर और इन्द्रियों के अधीन हैं, उनके विनाश के साथ इनका विनाश हो जाता है। ये सुख विषम-चंचल-हानि वृद्धिरूप हैं।
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उत्त० ५.५-७ उत्त ६.५३ : सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवभा। उत्त० १३.१६ : सव्वे कामा दुहावहा। उत्त० १४.१३ : खाणी अणत्थाण उ कामभोगा
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