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________________ पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी २,३ १५१ तत्त्वार्थसूत्र में सात तत्त्वों का उल्लेख है' और पुण्य और पाप को आस्रव तत्त्व के दो भेद के रूप में उपस्थित किया है। हेमचन्द्राचार्य ने भी सात ही तत्त्व बताए हैं और आस्रव तथा बंध के भेद रूप में भी पुण्य और पाप पदार्थों का उल्लेख नहीं किया है। संसार में हम दो प्रकार के प्राणियों को देखते हैं-एक सम्पन्न और दूसरे दरिद्र, एक स्वस्थ और दूसरे रोगी, एक दुःखी और दूसरे सुखी। प्राण्यिों के ये भेद अकस्मात् नहीं है, पर उनके अपने अपने कर्तृत्य के परिणाम हैं । जो कर्तृत्य प्रथम वर्ग की स्थितियों का उत्पादक है वही पुण्य तत्त्व है। स्वामीजी ने आगमिक परम्परा के मतानुसार पुण्य को तीसरा पदार्थ माना है। (२) पुण्य पदार्थ के कामभोगों की प्राप्ति होती है (दो० १) __ शब्द और रूप को काम कहते हैं तथा गंध, रस और स्पर्श को भोग । शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श क्रमशः श्रोतेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के विषय हैं । ये इष्ट या अनिष्ट, कान्त या अकांत, प्रिय अथवा अप्रिय, मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ, मन-आम अथवा अमनआम इस तरह दो-दो प्रकार के होते हैं । यहाँ कामभोग का अर्थ है-इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ और मन-आम शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श से युक्त भोग्यपदार्थ । ये कामभोग सजीव भी हो सकते हैं और निर्जीव भी । एक बार भोगने योग्य भी हो सकते हैं और बार-बार भोगने योग्य भी। पुण्य पदार्थ से इन इष्ट कामभोगों की प्राप्ति होती है। (३) पुण्य-जनित कामभोग विष-तुल्य हैं (दो० २-४) : इन शब्दादि कामभोगों के सम्बन्ध के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ पाई जाती हैं१. तत्त्वार्थसूत्र ६.१-४ : जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षस्तत्त्वम् २. तत्त्वार्थ सूत्र १-४ : ३. जीवाजीवाश्रवाश्च संवरो निर्जरा तथा। बन्धो मोक्षश्चेति सप्त, तत्त्वान्याडुमनीषिणः ।। ४. भगवती ७.७ ५. उत्त० ३२-३६, २३, ४६, ६२, ७५ ६. ठाणांग २.३-८३ ७. भगवती ७.७
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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