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________________ १. दोहा : १-५ : इन प्रारम्भिक दोहों में स्वामी जी ने पुण्य पदार्थ के सम्बन्ध में निम्न बातों का प्रतिपादन किया है : टिप्पणियाँ (१) पुण्य तीसरा पदार्थ है (दो० १); (२) पुण्य पदार्थ से कामभोगों की प्राप्ति होती है (दो० १); (३) पुण्य-जनित कामभोग विष तुल्य हैं (दो० १); (४) पुण्योत्पन्न सुख पौद्गलिक और विनाशशील हैं (दो २.४); और (५) पुण्य पदार्थ शुभ कर्म है अतः अकाम्य है (दो० ५) नीचे क्रमशः इन पर प्रकाश डाला जाता है : (१) पुण्य तीसरा पदार्थ (दो० १ ) : भगवान महावीर ने कहा है- "ऐसी संज्ञा मत करो - ऐसा मत सोचो कि पुण्य और पाप नहीं हैं पर ऐसी संज्ञा करो कि पुण्य और पाप हैं ।" उत्तराध्ययन में तथ्य भावों में पुण्य का उल्लेख किया गया है। ठाणाङ्ग में नवसद्भाव पदार्थों में तृतीय स्थान पर पुण्य की गिनती की गई है। संसार में द्वन्द्व वस्तुओं का उल्लेख करते हुए पुण्य और पाप परस्पर विरोधी तत्त्व बताये गये हैं । इससे प्रमाणित होता है कि जैनधर्म में पुण्य की एक स्वतंत्र तत्त्व के रूप में परूपणा हैं और नव पदार्थों में उसका स्थान तृतीय माना गया है। दिगम्बराचार्यों ने भी पुण्य को स्वतंत्र पदार्थ के रूप में स्वीकार किया है । १. सुयगड २.५-१६ : नत्थ पुणे व पावे वा नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि पुणे व पावें वा एवं सन्नं निवेसए || २५ पर उद्धृत) २. उत्त० २८.१४ ( पृ० ३. ठाणांग ८.६६५ ( पृ० २२ पा० टि० १ में उद्धृत) ४. ठाणांग २.५६ : ५. (क) पंचास्तिकाय: २.१०८ : (ख) द्रव्यसंग्रह २८ : जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं । संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ।। आसवबंधणसंवरणिज्जरमोक्खा सपुण्णपावा जे ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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