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________________ पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी ३ जीव का शुभ परिणाम भाव पुण्य है। भाव पुण्य के निमित्त से पुद्गल की कर्म-वर्गणा विशेष के शुभ पुद्गल आत्म-प्रदेशों में प्रवेश कर उनके साथ बन जाते जाते हैं। यह द्रव्य-पुण्य है'। पुण्य कर्म किस तरह पुद्गल-पर्याय है, यह इससे सिद्ध है। ३. चार पुण्य कर्म (ढाल गा० २) : __ इस गाथा में दो बातें कही गयी हैं : (१) आठ कर्मों में चार एकान्त पाप रूप है और चार पाप और पुण्य दोनों रूप। (२) पुण्य केवल सुखोत्पन्न करता है। इन मुद्दों पर नीचे क्रमशः प्रकाश डाला जाता है : (१) आठ कर्मों का स्वरूप : आत्मा के प्रदेशों में कर्म-वर्गणा के पुद्गलों का बन्ध होता है। बन्धे हुए कर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकृतियों का निर्माण होता है। भूल प्रकृतियाँ आठ हैं। इन प्रकृतियों के भेद से कर्मों के भी आठ भेद होते हैं। (क) जिस कर्म की प्रकृति ज्ञान को आवरण करने की होती है उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। (ख) जिस कर्म की प्रकृति दर्शन को अवरोध करने की होती है उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। (ग) जिस कर्म की प्रकृति सुख-दुःख वेदन कराने की होती है उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। (घ) जिस कर्म की प्रकृति मोह उत्पन्न करने की होती है उसे मोहनीय कर्म कहते (ङ) जिस कर्म की प्रकृति आयुष्य के निर्धारण करने की होती है उसे आयुष्य कर्म कहते हैं। (च) जिस कर्म की प्रकृति जीव की गति, जाति, यश, कीर्ति आदि को निर्धारण करने की होती है उसे नाम कर्म कहते हैं। १. (क) पञ्चास्तिकाय २. १०८ की अमृतचन्द्राचार्य कृत तत्त्वप्रदीपिका वृत्तिः शुभपरिणामो जीवस्य, तन्निमित्तः, कर्मपरिणामः पुद्गलानान्च पुण्यम् । (ख) उपर्युक्त स्थल की जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिः जीवस्य शुभपरिणामों भावपुण्यं भावपुण्यनिमित्तेनोत्पन्नः सवेद्यादि शुभप्रकृतिरूपः पुद्गलपरमाणुपिण्डोः द्रव्यपुण्यं २. उत्त० ३३.२-३; ठाणाङ्ग ८.३.५६६
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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