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आयुष्य (गा० १५): सातावेदनीय कर्म के छः बन्ध-हेतु निवद्य हैं (गा० १६-१७); कर्कश-अकर्कश वेदनीय कर्म के बंध-हेतु क्रमशः सावध, निरवद्य हैं (गा० १८); पापों के न सेवन से कल्याणकारी कर्म, सेवन से अकल्याणकारी कर्म (गा० १६-२०); सातावेदनीय कर्म के बन्ध-हेतुओं का अन्य उल्लेख (गा० २१-२२); नरकायु के बन्ध-हेतु (गा० २३); तिर्यज्चायु के बन्ध-हेतु (गा० २४); मनुष्यायुष्य के बन्ध-हेतु (गा० २५); देवायुष्य के बंध-हेतु (गा० २६); शुभ-अशुभ नाम कर्म के बन्ध-हेतु (गा० २७-२८); उच्च गोत्र और नीच गोत्र कर्म के बन्ध-हेतु (गा० २६-३०); ज्ञानावरणीय आदि चार पाप कर्म (गा० ३१); वेदनीय आदि चार पुण्य कर्मों की करनी निरवद्य है (गा० ३२); भगवती ८. ६ का उल्लेख दृष्टव्य (गा० ३३); कल्याणकारी कर्म-बन्ध के दस बोल निरवद्य हैं (गा० ३४-३७); नौ पुण्य (गा० ३८): पुण्य के नवों बोल निरवद्य व जिन-आज्ञा में हैं (गा० ३६); नवों बोल क्या अपेक्षा रहित हैं ? (गा० ४०-४४); समुच्य बोल अपेक्षा रहित नहीं (गा० ४५-५४); नौ बोलों की समझ (गा० ४८-५४); सावध करनी से पाप का बन्ध होता है (गा० ५५-५८); पुण्य और निर्जरा [की करनी एक है (गा० ५६); पुण्य की ६ प्रकार से उत्पत्ति ४२ प्रकार से भोग (गा० ६०); पुण्य अवाञ्छनीय मोक्ष : वाञ्छनीय (गा० ६१-६३); रचना-स्थान और काल (गा० ६४)।
टिप्पणियाँ (१. पुण्य के हेतु और पुण्य का भोग पृ० २००; २. पुण्य की करनी में निर्जरा और जिन-आज्ञा की नियमा पृ० २०१; ३. 'साधु के सिवा दूसरों को अन्नादि देने से तीर्थंकर पुण्य प्रकृति का बंध होता है' इस प्रतिपादन की अयौक्तिता पृ० २०२; ४.-पुण्य-बंध के हेतु और उसकी प्रक्रिया होती है और पुण्य सहज रूप से उत्पन्न होता है : जहाँ पुण्य होगा वहाँ निर्जरा होती है और पुण्य सहज रूप से उत्पन्न होता है : जहाँ पुण्य होगा वहाँ निर्जरा अवश्य होगी : सावध करनी से पुण्य नहीं होता : पुण्य की करनी में जिन आज्ञा है; ५. अशुभ अल्पायुष्य और शुभ दीर्घायुष्य के बन्ध-हेतु पृ० २०६; ६. अशुभ-शुभ दीर्घायुष्य कर्म के बन्ध हेतु पृ० २१०; ७. अशुभ शुभ आयुष्य कर्म का बंध और भगवती सूत्र पृ० २११; ८. वंदना से निर्जरा और पुण्य दोनों पृ० २११; ६. धर्मकथा से निर्जरा और पुण्य दोनों पृ० २१२; १०. वैयावृत्त्य से निर्जरा और पुण्य दोनों पृ० २१३; ११. तीर्थङ्कर नाम कर्म के बंध-हेतु पृ० २१३; १२. निरवद्य सुपात्र दान से मनुष्य-आयुष्य का बंध पृ०