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गुणनिष्पन्न हैं (गा० ३२-३४); पुण्योदय के फल (गा० ३५-४५); णैद्गलिक और आत्मिक सुखों की तुलना (गा० ४६-५१): पुण्य की वाञ्छा से पाप-बन्ध (गा० ५२-५३): पुण्यबन्ध के हेतु (गा० ५४-५८): पुण्य काम्य क्यों नहीं ? (गा० ५७-५८); त्याग से निर्जरा भोग से कर्म-बन्ध (गा० ५६); रचना-स्थान और काल (गा० ६०)।
टिप्पणियाँ (१. पुण्य पदार्थ पृ० १५० पुण्य तीसरा पदार्थ है : पुण्य पदार्थ से कामभोगों की प्राप्ति होती है : पुण्य जनित कामभोग विष-तुल्य है : पुण्योत्पन्न सुख पौद्गलिक और विनाशशील है : पुण्य पदार्थ शुभ कर्म है अतः अकाम्य है; २. पुण्य शुभ कर्म और पुद्गल की पयार्य है पृ० १५४; ३. चार पुण्य कर्म पृ० १५५-आठ कर्मों का स्वरूप : पुण्य केवल सुखोत्पन्न करते हैं; ४. पुण्य की अनन्त पर्यायें पृ० १५७: ५. पुण्य निरवद्य योग से होता है पृ० १५८: ६. सातावेदनीय कर्म पृ० १५६; ७. शुभ आयुष्य कर्म और उसकी उत्तर प्रकृतियाँ पृ० १६०; ८. शुभ नाम कर्म और उसकी प्रकृतियाँ पृ० १६२; ६. स्वामीजी का विशेष मन्तव्य पृ० १६६; १०. उच्च गोत्र कर्म पृ० १६७: ११. कर्मों के नाम गुणनिष्पन्न हैं पृ० १६८; १२. पुण्य कर्म के फल पृ० १६६; १३. पौद्गलिक सुखों का वास्तविक स्वरूप पृ० १७१; १४. पुण्य की वाञ्छा से पाप का बन्ध होता है पृ० १७३; १५. पुण्य-बन्ध के हेतु पृ० १७३; १६. पुण्य काम्य क्यों नहीं ? पृ० १७६; १७. त्याग से निर्जरा भोग से कर्मबन्ध पृ० १७७) पुण्य पदार्थ (ढाल : २)
पृ० १८०-२५४ पुण्य के नवों हेतु निवरद्य हैं (दो० १); पुण्य की करनी में निर्जरा की नियमा (दो० २); कुपात्र और सचित्त दान में पुण्य नहीं (दो० ३-६): शुभ योग निर्जरा के हेतु हैं, पुण्य-बन्ध सहज फल है (गा० १); निर्जरा के हेतु जिन-आज्ञा में हैं (गा० २); जहाँ पुण्य होता है वहाँ निर्जरा और शुभ योग की नियमा है (३); अशुभ अल्पायुष्य के हेतु सावद्य हैं (गा० ४); शुभ दीर्घायुष्य के हेतु निरवद्य हैं (गा० ५-६); अशुभ दीर्घायुष्य के हेतु सावद्य हैं (गा० ७); शुभ दीर्घायुष्य के हेतु निरवद्य हैं (गा० ८-६); भगवती में भी ऐसा ही पाठ है (गा० ३०); वंदना से पुण्य और निर्जरा दोनों (गा० ११); धर्म-कथा से पुण्य और निर्जरा दोनों (गा० १२); वैयावृत्त्य से पुण्य और निर्जरा दोनों (गा० १३); जिन बातों से कर्म-क्षय होता है उन्हीं से तीर्थंकर गोत्र का बन्ध (गा० १४); निरवद्य सुपात्र दान का फल : मनुष्य