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________________ अजीव पदार्थ : टिप्पणी ३७ ३१ इस तीसरे वार्तालाप से स्पष्ट है कि जिन षट् द्रव्यों का वर्णन प्रथम दो ढालों में आया है यह लोक उन्हीं से निष्पन्न है। लोक के बाद शून्य आकाश है जिसे अलोक कहते हैं । वहाँ अन्य कोई द्रव्य नहीं है 1 दिगम्बर आचार्यों ने भी लोक का वर्णन पञ्चास्तिकाय और षट् द्रव्य दोनों की अपेक्षाओं से किया है। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं : समवाओ पंचन्हं समउत्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं । सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं ।। पोग्गलजीवणिबद्धो धम्माधम्मत्थिकायकालड्ढो । वट्टदि आगासे जो लोगो सो सव्वकाले दुर || आचार्य नेमिचन्द्र लिखते हैं : धम्माधम्माकालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये। आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो' । । लोकालोक का विभाजन धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाल द्रव्यों के हेतु से है क्योंकि ये दोनों ही लोक-व्यापी हैं। लोकालोक का विभाजन जीव पुद्गल, काल द्वारा सम्भव नहीं क्योंकि पुद्गलों की स्थिति लोकाकाश के एक प्रदेश आदि में विकल्प से अर्थात् अनियत रूप से होती है। जीवों की स्थिति लोक के असंख्यातवें भागादि में होती है । और काल का क्षेत्र केवल ढाई द्वीप ही है। इसीलिए कहा है- "जादो अलोगलोगो जेसिसब्भावटो य गमणठिदी"-गमन और स्थिति [के हेतु धर्म से और अधर्म के सद्भाव से लोक और अलोक हुआ है। धर्म, अधर्म द्रव्यों का क्षेत्र आकाश का एक भाग है। उसके बाहर इनके अभाव से जीव पुद्गल की गति, स्थिति ] नहीं होती। इस तरह धर्म, अधर्म द्रव्यों की स्थिति का क्षेत्र उसके बाहर के क्षेत्र से जुदा हो जाता है यही लोक अलोक का भेद है। १. पञ्चास्तिकाय १.३ । यह बात १.२२, २३ में भी कही है । १.१०२ भी देखिए । २. प्रवचनसार २.३६ ३. द्रव्यसंग्रह २० ४. तत्त्वार्थसूत्र ५.१३-१५ ५. पञ्चास्तिकाय १.८७
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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