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________________ १३० नव पदार्थ साधर्म्य वैधर्म्य की संग्राहक गाथाएँ इस प्रकार हैं : परिणामि जीवमुत्तं, सपएसा एग खित्तकिरियाय । णिच्चं कारणकत्ता, सव्वगयमियरेहि अपवेसे ।। दुण्णि य एगं, पंचत्ति य एग दुण्णि चउरो य। पंचय एगं एगं, एएसि एय विण्णेयं ।। ३७. लोक और अलोक का विभाजन ___ एक बार गौतम ने भगवान महावीर से पूछा : भन्ते ! यह लोक कैसा कहा जाता है ?" महावीर ने उत्तर दिया “गौतम ! यह लोक पञ्चास्तिकाय कहा जाता है। दूसरी बार उन्होंने कहा : धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव जिसमें है वह लोक है। उपर्युक्त उत्तरों से यह प्रश्न उपस्थित होता है-लोक को एक जगह पंचास्तिकायमय औरदूसरी जगह षट् द्रव्यात्मक कहा है, क्या इन कथनों में विरोध नहीं है ? भगवान ने उत्तर प्रश्नकर्ता की भावना को स्पर्श करते हुए हैं। जब प्रश्न के पीछे प्रश्नकर्ता की भावना यह रही है कि लोक कितने पंचास्तिकाय से निष्पन्न है तो भगवान ने उसका पहला उत्तर दिया। जब प्रश्नकर्ता की भावना यह पूछने की रही कि लोक कितने द्रव्यों से निष्पन्न है तो उन्होंने उसका द्वितीय उत्तर दिया। दोनों में परस्पर कोई विरोध नहीं हैं। दोनों के उत्तरों का फलितार्थ इस प्रकार है-'लोक षट् द्रव्यात्मक है जिसमें पाँच पञ्चास्तिकाय है और छठा काल है, जो अस्तिकाय नहीं। एक तीसरा वार्तालाप इस विषय को सम्पूर्णतः स्पष्ट कर देता है। गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा : "आकाश दो प्रकार का कहा है-(१) लोकाकाश और (२) अलोकाकाश । लोकाकाश में जीव हैं वे नियम से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय हैं । लोकाकाश में अजीव हैं वे दो प्रकार के हैं-(१) रूपी और (२) अरूपी। जो रूपी हैं वे चार प्रकार के हैं-स्कंध, स्कंध-देश, स्कंध-प्रदेश और परमाणु पुद्गल । जो अरूपी हैं वे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और अद्धाकाल हैं। १. भगवती १३.४ २. उत्त० २८.७ ३. भगवती २.१०
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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