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________________ १३२ ३८. मोक्ष - मार्ग में द्रव्यों का विवेचन क्यों ? प्रश्न उठता है कि मोक्ष-मार्ग में लोक को निष्पन्न करने वाले षट् द्रव्य अथवा पञ्चास्तिकाय के वर्णन की क्या आवश्यकता है ? जहाँ बंधन और मुक्ति के प्रश्नों का ही निचोड़ होना चाहिए वहाँ लोक अलोक के स्वरूप का विवेचन क्यों ? इसका युक्तिसंगत उत्तर आगमों में है । दशवैकालिक सूत्र में कहा है : "जब मनुष्य जीव और अजीव-इन पदार्थों को अच्छी तरह जान लेता है, तब वह सब जीवों की बहुविध गतियों को भी जान लेता है। बहुविध गतियों को जान लेने से उनके कारण पुण्य, पाप बन्ध और मोक्ष को जान लेता है, तब जो भी देवों और मनुष्यों के कामभोग हैं, उन्हें जानकर उनसे विरक्त हो जाता है। उनसे विरक्त होने पर वह अन्दर और बाहर के संयोग को छोड़ देता हैं ऐसा हो जाने पर वह मुण्ड हो अनगारवृत्ति को धारण करता है। इससे वह उत्कृष्ट संयम और अनुत्तर धर्म के स्पर्श से अज्ञान द्वारा संचित कलुष कर्म-रज को धुन डालता है। इससे उसे सर्वगामी केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त होता है और वह लोकालोक को जानने वाला केवली हो जाता है। फिर योग का निरोधकर वह शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है। इससे कर्मों का क्षय कर, निरज हो, वह सिद्धि प्राप्त करता है और शाश्वत सिद्ध होता है ।" इस विषय में आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं: "मैं मोक्ष के कारणभूत तीर्थंकर महावीर को मस्तक द्वारा नमस्कार कर मोक्ष के मार्ग अर्थात् कारणरूप षट् द्रव्यों के नवपदार्थ रूप भंग को कहूँगा । सम्यक्त्वज्ञानयुक्त चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है। शुद्ध चारित्र रागद्वेष रहित होता है और स्वपरविवेक भेद जिनको हैं उन भव्यों को प्राप्त होता है। भावों का - षट्द्रव्य, पञ्चास्तिकाय, नवपदार्थों का जो श्रद्धान है वह सम्यग्दर्शन है। उन्हीं पदार्थों [का जो यथार्थ अनुभव है, वह सम्यक्ज्ञान है। विषयों में नहीं की है अति दृढ़ता से प्रवृत्ति जिन्होंने] ऐसे भेद विज्ञानी जीवों का जो रागद्वेष रहित शान्तं स्वभाव है वह सम्यक्चारित्र है।" नव पदार्थ इस तरह जीव, अजीव अथवा षट् द्रव्यों आदि का सम्यक् ज्ञान और सम्यक्चरित्र से आधार है । यही कारण है कि जिन्होंने श्रद्धान के बोलों में लोक, अलोक और लोकालोक के निष्पादक जीव और अजीव पदार्थों में दृढ़ श्रद्धा रखने का उपदेश दिया गया है । १. दसवैकालिक ४. १४-२५ पञ्चास्तिकाय २.१०५-७ २. ३. सूयगडं : २.५-६ नात्थ लोए अलोए वा नेवं सन्नं निवेसए । अत्थि लोए अलोए वा एवं सन्नं निवेसए । । नत्थि जीवा अजीवा वा नेवं सन्नं निवेसए । अस्थि जीवा अजीवा वा एवं सन्नं निवेसए । ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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