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________________ नव पदार्थ यह स्पष्टीकरण काल द्रव्य को स्वतन्त्र द्रव्य न मानने की अपेक्षा से है। हम पूर्व में उल्लेख कर आये हैं कि कुछ आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते। वे काल को जीव अजीव की पर्याय ही मानते हैं और उसे उपचार से द्रव्य कहते हैं। काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं-यह प्रश्न उमास्वाति के समय में ही उठ चुका था। उमास्वाति का खुद का अभिमत काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानने के पक्ष में था (पृ० ६७ टि० २ का प्रथम अनुच्छेद)। जब आगमों पर दृष्टि डाली जाती है तो देखा जाता है कि वहाँ काल को स्पष्टतः स्वतन्त्र द्रव्य कहा गया है। स्पष्ट उल्लेख की स्थिति में विचार किया जाय तो ठाणांग के उल्लेख में काल भेदों को जीव अजीव कहने का कारण काल का दोनों प्रकार के पदार्थों पर वर्तन है। दिगम्बर आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मानते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं-“पाँच अस्तिकाय और छट्ठा काल मिलकर छः द्रव्य होते हैं। काल परिवर्तन-लिंग से संयुक्त है। ये षट् द्रव्य त्रिकाल भाव परिणत और नित्य है । सद्भाव स्वभाव वाले जीव और पुदगलों के परिवर्तन पर से जो प्रगट देखने में आता है वही नियम से-निश्चयपूर्वक काल द्रव्य कहा गया है । वह काल वर्तना लक्षण है। इस कथन का भावार्थ है-जीव, पुद्गलों में जो समय-समय पर नवीनता-जीर्णता रूप स्वाभाविक परिणाम होते हैं वे किसी एक द्रव्य की सहायता के बिना नहीं हो सकते। जैसे गति, स्थिति, अवगाहना धर्मादि द्रव्यों के बिना नहीं होती वैसे ही जीवों और पुद्गलों की परिणति किसी एक द्रव्य की सहायता के बिना होती। परिणमन का जो निमित्त कारण है वह काल द्रव्य है। जीव और पुद्गलों में जो स्वाभाविक परिणमन होते हैं उनको देखते हुए उनके निमित्त कारण निश्चय काल को अवश्य मानना योग्य है। १. नवतत्त्वप्रकरणम् (देवेन्द्र सूरि) : उवयारा दवपज्जाओ २. (क) भगवती २५.४; २५.२ (ख) देखिए पृ० ६७ पा० टि०-२ ३. पञ्चास्तिकाय : (क) १.६ (पाद टि० पृ० ६७ पर उद्धृत) (ख) १.१०२ ४. पञ्चास्तिकायः १.२३ : समावसभावाणं जीवाणां तह य पोग्गलाणं च। परियट्टणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो। ५. वही १.२४ : वट्टणलक्खो य कालोत्ति।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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