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णमोकार मन्त्र और रंग विज्ञान 873
परमेष्ठी का श्यामवर्ण हैं । यह वर्ण मान्यता अति प्राचीन काल से चली आ रही है। आज यह प्रमाणित भी हो चुकी है।
हमारी जिह्वा द्वारा उच्चरित भाषा की अपेक्षा दृष्टि में अवतरित रंगों और आकृतियों की भाषा अधिक शक्तिशाली है। महामन्त्र में निहित रंगों की भाषा को स्वयं में उतारने/समझने से अद्भुत तदाकरता की स्थिति बनती है। पंच परमेष्ठी के प्रतीकात्मक रंगों को क्रमशः ज्ञान, दर्शन, विशुद्धि, आनन्द और शक्ति के केन्द्रों के रूप में स्वीकृत किया गया है। ये परमेष्ठी पवित्रता, तेज, दढ़ता; व्यापक मनीषा एवं सतत मुक्तिसंघर्ष के प्रतीक भी हैं। उक्त पंच वर्गों की न्यूनता से हमारे शरीर और मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अरिहंत परमेष्ठी-वाचक रंग (श्देत) की कमी से हमारा सम्पूर्ण स्वास्थ्य बिगड़ता है और हम कुपथ की और बढ़ते हैं। हमारी निर्मलता कमजोर होने लगती है। सिद्ध परमेष्ठी वाचक लाल रंग हमारे शरीर की ऊष्मा
और ताजगी की रक्षा करता है। इसकी कमी से हमारी मानसिकता बिगड़ती है। आलस्य और अकर्मण्यता आती है। आचार्य परमेष्ठी का पीतवर्ण है। इसकी न्यूनता होने से हमारी चारित्रिक एवं ज्ञानात्मक दृढ़ता घटती है। उपाध्याय परमेष्ठी का नीलवर्ण है। इसकी कमी होने से हमारी शान्ति भंग होती है ! हममें उच्च स्तरीय ज्ञान और चिन्तन की कमी होने लगती है। हम अशान्त और क्रोधी हो जाते हैं। साधु परमेष्ठी का रंग श्याम का काला माना गया है। यह रंग मूल नहीं है ! अनेक रंगों के मिश्रण से बनता है। इसी प्रकार श्वेत रंग भी अनेक रंगों के (सात प्रमुख रंगों) मिश्रण से बनता है। श्याम वर्ण की कमी हमारे धैर्य को कमजोर करती है। साथ-ही-साथ हमारी कर्मों के विरुद्ध संघर्षशीलता भी कम होती है। साधु वास्तव में तप, साधना और त्याग के प्रतीक हैं । वे निरन्तर कालिमा-कर्म-कालिमा से जूझ रहे हैं। अतः उन्हें संघर्षशीलता का प्रतिनिधि परमेष्ठी मान गया है। साध परमेष्ठी अपने सीधे यथार्थ के कारण हमारे जीवन के सन्निकट होकर हममें सीधे उतरते हैं। प्राचीन ऋषियों, मुनियों और ज्ञानियों ने अपने ध्यान, मनन और अनुभव से उक्त रंगों का अनुसन्धान किया है।