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________________ महामन्त्र णमोकार और ध्वनि विज्ञान 73 णं - णं ध्वनि तो पूर्णतः स्पष्ट है कि वह मूर्धा स्थानीय और अमृतमयी तथा अमृतवर्षिणी है । अतः णमो सिद्धाणं के द्वारा कर्मनाश का योग बनता है । इस पद में तीन दन्त्य ध्वनियों की युगपत् तरंग निर्मित से जो आहत नाद बनता है वह लोकोत्तर होता है । ज्यों ही वह नाद (सिद्धा) 'णं' ध्वनि का स्पर्श करता है इसमें शब्दब्रह्म की अमृतमयता भर जाती है। भक्त या पाठक केवल ' णमो सिद्धाणं' पद का भी जप या सस्वर पाठ कर सकते हैं । णमो अरिहंताणं की ध्वनि तरंग से हम में आध्यात्मिक निर्मलता आती है, श्वेताभा से हम भर उठते हैं, कर्मशत्रु वर्ग पर विजयी हो जाते हैं, अमृत तत्त्व हमारे भीतर प्रवेश करने लगता है । णमो सिद्धाणं उक्त प्रक्रिया में सक्रियता तत्त्व को जित करता है और शक्तिवर्धन का काम भी करता है । पूर्व पद की सिद्धि या उपलब्धि अगले पद के कार्य में योगात्मक होगी ही । णमो सिद्धाणं पद पूर्णता को ध्वनित करता है । मानव हृदय और मस्तिष्क स्पष्टता और विश्लेषण अपनी समता में जानना समझना चाहता है अतः वह अपने सहजीवी आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं की महानता को नमन करता है और अपनी आकांक्षा की पूर्ति करता है । स्पष्ट है कि परवर्ती तीन परमेष्टी पूर्ववर्ती दो परमेष्ठियों की शक्ति और सामर्थ्य के पोषक एवं अनुशास्ता हैं । संसारी जीव इनके द्वारा ही प्रकट रूप में सन्मार्ग ग्रहण करते हैं । णमो आइरियाणं : पंच नमस्कार मन्त्र में आचार्य परमेष्ठी का मध्यवर्ती स्थान है आचार्य परमेष्ठी मुनि संघ के प्रमुख शास्ता एवं चरित्र - आचारण के प्रशास्ता होते हैं | ये शास्त्रों के ज्ञाता और स्वयं परम संयमी एवं व्रती होते हैं ।
SR No.006271
Book TitleMahamantra Namokar Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherMegh Prakashan
Publication Year2000
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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