________________
348 3 महामन्त्र णमोकार : एक वैज्ञानिक अन्वेषण
अहं शब्द को भी राम शब्द के समान मातका शक्ति के द्वारा समझा जा सकता है। जब हम अर्ह शब्द का उच्चारण करते हैं तो इस शब्द से पूज्य अरिहन्त भगवान का बोध होता है। उनकी मूर्ति सामने आने लगती है। अहं के उच्चारण से अरिहन्त परमेष्ठी के रूप-बोध के साथ हमारे आन्तरिक जगत् में भी परिवर्तन होने लगते हैं। अहँ के उच्चारण में हम अ++ह. +अ+म् का उच्चारण करते हैं । 'अ' का उच्चारण कण्ठ से होता है, वह जीव का स्थान माना गया है । 'र' का उच्चारण स्थान मूर्धा है और वह परम तत्त्व का स्थान माना गया है । 'ह' का उच्चारण स्थान कण्ठ हैं, परन्तु जब 'ह' 'र' से जुड़कर उच्चरित होता है तो उसका स्थान मूर्धा हो जाता है। मूर्धा परम तत्त्व का स्थान है। अब अहँ में अन्तिम अक्षर बिन्दु है । वह मकार का प्रतीक है। मकार का उच्चारण ओष्ठयुगल के योग से होता है। इसमें दोनों ओष्ठों के मिलन से ध्वनि भीतर ही गूंजने लगती है। शक्ति ऊपर की ओर अर्थात् सहगार की ओर उठने लगती है। इस प्रकार पूरे अर्ह शब्द का मातका और व्याकरण-सम्मत विश्लेषण के आधार पर अर्थ यह हुआ कि इसमें जीव का परमतत्त्व (अरिहन्त) से साक्षात्कार होता है और दूसरी अवस्था में यह साक्षात्कार एकाकार में बदलने लगता हैएक रूप होकर सहस्त्रार के माध्यम से ऊपर उठने लगता है ऊर्ध्व गमन आत्मा के प्रमुख गुणों में से एक है। ___अर्ह शब्द को एक दूसरे प्रकार से भी समझा जा सकता है। संस्कृत में अहं शब्द है। इसका 'अ' सष्टि के आदि का बोधक है और 'ह' उसके अन्त का । अतः 'अहं' उस तत्त्व का बोधकं है जिससे सृष्टि का आदि ओर अन्त पुनः पुनः होता रहता है। जब इस अहं में अर्ह का 'र' जुड़ जाता तो इसका रूप ही बदल जाता है। अहं अर्ह बन जाता है । जैन धर्म ने साधना के लिए अर्ह शब्द का उपयोग किया है अर्ह में 'र' अग्नि शक्ति, क्रियाशक्ति और संकल्प शक्ति का बोधक है। जब संकल्प शक्ति के कारण व्यक्ति में सम्पूर्ण शक्ति जग जाती है तो स्वतः उसके संसार चक्र का अन्त हो जाता है। उसका अहं अहं बन जाता है।
1. “अकुटविसर्जनीयानाम् कण्ठ," अष्टाध्यायी-पाणिनी 2. "डपूरध्यातीयानामोष्ठी"- " "