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मन्त्र और मातृकाएं 41 हमारी प्राण वायु और ऊर्जा दोनों मिलकर कण्ठ के साथ जुड़ती हैं और कुछ ध्वनियां निर्मित होती हैं। मूर्धा और ओष्ठ के संयोग से कुछ ध्वनियां बनती हैं। इन्हीं ध्वनियों को मातृका कहते हैं। मातृका का अर्थ है मूल और सारे ज्ञान-विज्ञान का मूल है शब्द, और शब्द का मूल कण्ठ से ओष्ठ तक है। हमारी प्राण ऊर्जा टकरा करके, आहत या प्रताड़ित होकर अनेक शब्दाकृतियों को पैदा करती है, स्फोट पैदा करती है उसको व्यवहार में शब्द कहते हैं। ध्वनि शब्द के रूप में परिवर्तित होती है। यह अपनी उच्चतम अवस्था में दिव्यध्वनि या निरक्षरीध्वनि भी बनती है। वास्तव में यह बनती नहीं है खिरती हैअपनी पूरी गरिमामय सहजता से । यही सम्पूर्ण विश्व के सृष्टिक्रम का संचालन करती है। इसी को हम मात्रिका या मूल शवित कहते हैं। सारा ज्ञान-विज्ञान इसी से है। आप किसी नये शहर में पहंचते ही उसकी जानकारी के लिए तुरन्त उस शहर की पुस्तक खरीद लेते हैं और अपना पूरा काम चला लेते हैं । यह क्या है ? यही तो है मातृकाशक्ति का प्रकट फल।
हमारी देव नागरी लिपि की वर्णमाला असे ह तक है। क्ष, त्र, ज्ञ तो संयुक्त अक्षर हैं, स्वतन्त्र नहीं हैं। अत: अ से ह तक की वर्णमाला में ही गभित हैं। हमारी यात्रा अ से आरम्भ होकर ह पर समाप्त होती है। असे ह तक ही हमारा समस्त ज्ञान-विज्ञान है। हम उसी में स्वप्न देखते हैं, सोचते हैं और जीवन क्रिया में लीन होते हैं। हमारे समस्त आचार-विचार का मूलाधार यही है। यह जो संसार है वैखरी का संसार है।-बाह्य शब्द का संसार है। इसी के सहारे हम समस्त विश्व को जानते हैं। मन्त्र में केवल इतना ही नहीं है कि शब्द का बाह्य अर्थात् स्थूल ज्ञान मात्र हो। हमने मातृका की बात की है। उसको समझना होगा, उसके व्यापक प्रभाव को हृदयंगम करना होगा। मातृका-शक्ति के पूर्ण प्रभाव को हर व्यक्ति नहीं समझ सकता। इस सन्दर्भ में स्पष्टता के लिए महाभारत का एक प्रसंग याद आ रहा हैभीष्म पितामह बाणों की शय्या पर लेटे हुए हैं। मृत्यु को रोके हुए हैं। समस्त पाण्डवदल नतमस्तिक होकर पितामह के चारों तरफ खड़ा है। पितामह ने कहा मुझे प्यास लगी है। सूर्यास्त हो रहा है। पानी लेकर तुरन्त सभी लोग दौड़े। पितामह ने नहीं पिया और उदास हो गए। फिर बोले, मुझे मेरी इच्छा का पानी अर्जुन ही पिला सकता है। ये