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________________ 3 40 & महामन्त्र णमोकार : एक वैज्ञानिक अन्वेषण होगा। मातृका-शक्ति का विवेचन 'परात्रिंशका' में भी किया गया है "अकारादि क्षकरान्ता मातका वर्णरूपिणी। चतुर्दश स्वरोपेता बिन्दुव्रय विभूषिता॥" वर्णात्मक मातृकाओं की संख्या पचास है। वर्णमाला को स्थूल. मातृका के रूप में मान्यता प्राप्त है। वर्णमयी मातृका-शक्ति है और अर्थमयी मातृका शुभात्मक क्रिया है। शास्त्रों में इस वर्णमयी मातृकाशक्ति को उच्चारण और अर्थछवियों के आधार पर चार प्रकार से वर्गीकृत किया है1. वैखरी स्थूल मातृका 2. मध्यमा वाणी सूक्ष्म मातृका 3. पश्यन्ती सूक्ष्मतर मातृका 4 परा सूक्ष्मतम मातृका वैखरी-विशेष रूप से स्वर अर्थात् कठिन होने के कारण इस वाणी विद्या को वैखरी कहा गया है। अथवा ख (कर्ण विवर) से सम्पक्त होने के कारण भी इसे वैखरी कहा जाता रहा है। विखर एक प्राणांश है, उससे प्रेरित होने के कारण भी इस वाणी को वैखरी कहा जाता है। मध्यमा-इस वाणी विधा में वैखरी की अपेक्षा भावात्मकता और सूक्षमता अधिक रहती है। पश्यन्ती-इसमें अपेक्षाकृत रूप से अर्धप्रणवता और व्यंजकता की मात्रा सूक्ष्मतर होती है। इसे सामान्य व्यक्ति नहीं समझ सकता । परा-यह वाणी का सूक्ष्मतम रूप है। इसमें मातृका शक्ति का अर्थविस्तार एवं भावविस्तार चरम पर होता है। वर्णों की मातका शक्ति धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते बिन्दुनात्मक हो जाती है। यह वह अवस्था है जहां पहुंचकर वाणी शब्द और वर्ण से हटकर केवल शून्य नादात्मक हो जाती है। इसी अवस्था में जीव का मानव का) अपनी विशुद्धात्मा से अन्तरात्मा से साक्षात्कार होता है। इसी को वेदान्त में नाद ब्रह्म की संज्ञा दी गयी है। उक्त विवेचन का मथितार्थ यह है कि मातृका-शक्ति की पूर्णता स्थूलता अथवा रूपात्मकता से भावात्मकता में परिणत होने में है। वाणी की यह अवस्था अनिर्वचनीय होती है। वास्तव में साहित्य की शब्दावली में इसे वाणी की या मातृका-शक्ति रस-दशा कहा जा सकता है। उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि इन्हीं स्वर, व्यंजन एवं बिन्दु, विसर्ग तथा मात्राओं वाली मातका-शक्ति ही ज्ञान एवं भाषा लिपियों का मूलाधार है।
SR No.006271
Book TitleMahamantra Namokar Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherMegh Prakashan
Publication Year2000
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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