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मन्त्र और मातृकाएं 2392 रूप में मन की तीन अवस्थाएं मानी गयी हैं। चित्त मन की सुप्त एवं अशान्त अवस्था है। चिद् मन की चैतन्यमय जागृत अवस्था है और चिति मन की एक अवस्था है। जब वह साक्षात् ब्रह्म रूप होकर सर्वव्यापी एवं पूर्ण स्वतन्त्र हो जाता है। इसे ही जीवित-भक्ति के रूप में भारतीय धर्मों ने स्वीकार किया है। मन्त्र शब्द के इस अर्थ से भी धर्म से इसका अमेदत्व ही सिद्ध होता है। "यद्यपि इस मन्त्र का यथार्थ लक्ष्य निर्वाण-प्राप्ति है, तो भी लौकिक दृष्टि से यह समस्त कामनाओं को पूर्ण करता है ।*" . इदं अर्थमन्त्रं परमार्थतीय परम्परा गुरु परम्परा प्रसिद्धं विशुद्धोपदेशम् ।" अर्थात् अभीष्ट सिद्धिकारक यह मन्त्र तीर्थंकरों की परम्परा तथा गुरु परम्परा से अनादिकाल से चला आ रहा है। आत्मा के समान यह अनादि और अविनश्वर है। मन्त्र और मातृकाएं:
भारतीय तान्त्रिक परम्परा के ग्रन्थों में निःश्रेयस (मोक्ष) प्राप्ति एवं ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के साधन के रूप में मन्त्रों को स्वीकार किया गया है। उपकारक कर्मों के अनुष्ठान को तन्त्र कहा गया है। कर्म संहति ही तन्त्र है। वास्तव में तन्त्र और आगम को पर्याय के रूप में भी स्वीकृति प्राप्त है। मन्त्रों की महनीयता का रहस्य तन्त्रों में निहित है। सामान्य जन मन्त्रों की इस गहराई और विस्तार को न समझ पाने के कारण उनमें अविश्वास करने लगते हैं। मन्त्रों की रचना में अक्षर, वर्ण एवं वर्णमाला का अनिवार्य योग है। वास्तव में वर्ण और वर्णमाला एकाकी और संगठित रूप में साक्षात् मन्त्र ही हैं। यही कारण है कि वर्णों को मन्त्रों की मातृका-शक्ति कहा गया है।
"अकारादि क्षकरान्ता वर्णः प्रोक्तास्तु मातृकाः। सृष्टिन्यास स्थितिन्यास संहतिन्यासतस्त्रिधा॥"
-जयसेन प्रतिष्ठा पाठ श्लोक 376 अर्थात् आकार से लेकर क्षकार पर्यन्त वर्ण मातृका वर्ण कहलाते हैं। इन वर्गों का क्रम तीन प्रकार का है-सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और संहारक्रम । णमोकार मन्त्र में यह क्रम है-~-यथास्थान इसका विवेचन
* "मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन" डॉ. नेमीचन्द्र जैन ज्योतिषाचार्य,
पृ० 17, पृ० 581