SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 134 महामन्त्र णमोकार : एक वैज्ञानिक अन्वेषण उसके बाद आवश्यक का पाठ देने की पद्धति थी।''नमस्कार मन्त्र को जैसे सामायिक का अंग बताया गया, वैसे किसी अन्य आगम का अंग नहीं बताया गया है । इस दृष्टि से नमस्कार महामन्त्र का मलस्रोत सामयिक अध्ययन ही सिद्ध होता है। आवश्यक या सामयिक अध्ययन के कर्ता यदि गौतम गणधर को माना जाए तो पंच नमस्कार महामन्त्र के कर्ता भी गौतम गणधर ही ठहरते हैं।" "विगत ढाई हजार वर्षों से इसे लेकर विपुल साहित्य प्रकाश में आया है, जिसकी जानकारी जन-साधारण को तो क्या, विद्वानों को भी पूरी तरह नहीं है।" इस मत से भी यही ज्ञात होता है कि महामन्त्र पर लगभग ढाई हजार वर्षों से विपुल साहित्य प्रकाशित हुआ है, परन्तु इसकी जन्म-तिथि और जनक के विषय में यह मत भी मौन है। इसमें प्रकान्तर से मन्त्र को अनादि माना गया है। पं. नेमीचन्दजी ज्योतिषाचार्य ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक-'मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन' में महामन्त्र णकोकार के अनादित्वसादित्व पर विचार किया है। उनके अनुसार-"णमोकार मन्त्र अनादि है। प्रत्येक कल्प काल में होने वाले तीर्थंकरों के द्वारा इसके अर्थ का और उनके गणधरों के द्वारा इसके शब्दों का निरूपण किया जाता है। पंच परमेष्ठी अनादि होने के कारण यह मन्त्र अनादि माना जाता है। इस महामन्त्र में नमस्कार किये गये पात्र आदि नहीं, प्रवाह रूप से अनादि हैं और इनको स्मरण करने वाले जीव भी अनादि हैं; अतः यह मन्त्र भी गुरु-परम्परा से अनादिकाल से प्रतिपादित होता चला आ रहा है। आत्मा के समान यह अनादि और अविनश्वर है। प्रत्येक कल्पकाल में होने वाले तीर्थंकरों द्वारा इसका प्रवचन होता आया है।" उक्त समस्त विवेचन से यह तथ्य उभर कर आता है कि यह पंच नमस्कार महामन्त्र अनादि है। प्रत्येक तीर्थंकर अपने युग में इस मन्त्र के अर्थ का विवेचन करते हैं और फिर उनके गणधर या गणधरों द्वारा उसके शब्दों का विवेचन होता है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही जैन-शाखाएं इस मन्त्र को अनादि ही मानती हैं । इस मन्त्र के सम्बन्ध में यह श्लोक प्रसिद्ध है अनादि मूल मन्त्रोयं, सर्वविघ्न बिनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु, प्रथम मंगलं मतः॥
SR No.006271
Book TitleMahamantra Namokar Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherMegh Prakashan
Publication Year2000
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy