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मन्त्र और मन्त्रविज्ञान 8298 से 'लं' ध्वनि का निर्माण होता है । कोई तरल पदार्थ जब स्थूल होने की प्रक्रिया से गुजरता है तो 'लं' ध्वनि होती है । जल प्रवाह से 'वं' ध्वनि प्रकट होती है । 'व' ही जल का आधार है । 'व' से जल भी पैदा किया जा सकता है और जल से 'वं' ध्वनि पैदा होती ही है । तत्त्वों के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के समस्त क्रियाकलापों में ध्वनि सर्वोपरि है । रडार आदि का आविष्कार इसी प्रक्रिया के ब पर हुआ । मन्त्रवादियों और मन्त्रसृष्टाओं ने इसी तथ्य को ध्यान में रखकर मन्त्र रचना की थी । तत्त्वों की शक्ति उनकी क्रिया में ही प्रकट होती है । वर्णमाला में शक्ति स्वरों में है । व्यंजन मूल हैं किन्तु वे स्वरों की सहायता पाकर ही सक्रिय होते हैं । स्वतः वे कुछ नहीं करते या कर पाते । यही कारण है कि व्यंजनों को योनि कहा गया है और स्वरों को विस्तारक कहा गया है। स्वरों से संयुक्त होते ही व्यंजन उद्दीप्त हो उठते हैं। व्यंजनों को तत्त्वों के धरातल पर पांच वर्गों में विभाजित किया गया है । समान धर्मिता के कारण तत्त्वों और वर्णों की यह व्यवस्था की गयी
पृथ्वी तत्त्व
• जल-तत्त्व
अग्नि तत्व
वायु आकाश
क, च, ट, त प
ख, छ, ठ, थ, फ,
ग, ज, ड, द, ब
ध, झ, ढ, घ, भ
ड, ञ, ण, न, म
प्रथम अक्षर द्वितीय अक्षर तृतीय अक्षर
चतुर्थ अक्षर
पंचम अक्षर
इस प्रकार वर्णों को शक्ति समुच्चय के साथ पकड़ा गया । अब आवश्यकता पड़ी कि शब्दों को जीवन के साथ कैसे जोड़ा जाए ? सृष्टि के विकास और ह्रास को कैसे समझा जाए ? जीवन की सारी स्थितियों को कैसे समझें ? व्याकरण, दर्शन और भाषा विज्ञान ने अपने ढंग से यह काम किया है । सभी शब्द तत्त्वों के मिलन हैं ।
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मन्त्र विज्ञान की वैज्ञानिकता को समझने के लिए हम महामन्त्र णमोकार के प्रथम परमेष्ठी वाची अर्हं (अरिहंताणं) को ले लें । अहं मूल शब्द था । अहं में अ प्रपञ्च जगत् का प्रारूप करने वाला है और 'है' उसकी लीनता का द्योतक है । अहं में अन्त में है बिन्दु (') यह लय ar प्रतीक है। बिन्दु से ही सृजन है और बिन्दु में ही लय है । यह प्रश्न उठता है कि सृजन और मरण की यह यान्त्रिक क्रिया है इसमें जीवन