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8288 महामन्ना नमोकार : एक वैज्ञानिक अन्वषण
गया है । समस्त संवाद वहां इकट्ठा हो जाता है और उसे चन्द्रमा तक भेज दिया जाता है, फिर वहां से अलग-अलग स्थानों को संवाद भेजे जाते हैं। इसका आशय यह है कि हम जो शब्द बोलते हैं उनको पकड़ा जा सकता है, पुनः प्रस्तुत किया जा सकता है । उनको गन्तव्य तक पहुंचाया जा सकता है । परन्तु विश्व भर की सभी ध्वनियां आकाशतरंगों में मिलकर कहीं भटक गयी हैं - वे अब भी हैं और उन्हें पकड़ा जा सकता है । यह भी सम्भव है कि आकाश में बिखरी हुई अरिहन्तों और तीर्थंकरों की वाणी भी एक दिन विज्ञान की सहायता से हम सुन सकें । इसी धरातल पर अध्यात्म शक्ति की अति विकसित अवस्था में हम मन्त्र के (बेतार के तार) के माध्यम से अरिहन्तों और तीर्थंकरों का साक्षात्कार भी कर सकते हैं। एक दिव्य कर्ण भी विकसित कर सकते हैं जिससे दिव्य ध्वनि को सुना जा सके। वाणी या भाषा के जो चार स्तर हैं (बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा) वे भी मन्त्र विज्ञान की ध्वनिमूलकता का समर्थन करते हैं । भाषा अपनी भावात्मकता से जन्म लेकर स्थूल शब्दों में ढलती है और फिर धीरे-धीरे अन्ततः उसी भावात्मकता में लीन हो जाती है ।
मन्त्र विज्ञान में शब्द की महत्ता को हम समझ रहे हैं । आखिर ये शब्द, यह भाषा न जाने कितने स्रोतों से बने हैं, यह ठीक है । किन्तु जो मूलभूत बीज शब्द एवं वर्ण हैं ये तो वस्तुक्रिया से ही जन्मे हैं । अर्थात् वास्तव में जब तक हमारा आशय (विचार या भाव) शब्द या ध्वनि में ढलकर आकार ग्रहण नहीं करता तब तक हम उसे अव्यक्त भाषा कह सकते हैं। अतः स्पष्ट है कि भाषा या ध्वनि का हमारे मूल मानम से सीधा-भीतरी और गहरा सम्बन्ध है ।
किसी भी द्रव्य की ऊर्जा को पकड़ने के लिए और दूसरों तक पहुंचाने के लिए, हमें उस वस्तु में विद्यमान विद्युत क्रम को समझना होगा । देखना होगा कि उससे किस प्रकार की क्रिया- तरंगें बह रही हैं । इसके लिए प्राचीन ऋषियों ने एक विधि निकाली । उन्होंने अग्नि को जलते हुए देखा। अग्नि की तीव्र लौ से 'र' ध्वनि का उन्होंने साक्षात्कार एवं श्रवण किया। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अग्नि से 'र' ध्वनि उत्पन्न होती है और 'र' से अग्नि उत्पन्न की जा सकती है। बस 'र' अग्नि बीज के रूप में मान्य हो गया । इसी प्रकार पृथ्वी की स्थूलता