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है। ईथर के भंडार शरीर चक्र कहलाते हैं । मानव - मानवी के मेरुदण्ड के नीचे - गुदा स्थान में एक विकास शील शक्ति है । यही कुंडलिनी या मूलाधार चक्र है । साधना अथवा ध्यान की गहरी अवस्था में कुंडलिनी (मन की सुपुप्त शक्ति) जागृत होती है । यह लोकोत्तर शक्ति है । जागृत कुंडलिनी वाला व्यक्ति प्रखर मेधावी, कवि, ऋषि अथवा वैज्ञानिक होगा । कुंडलिनी जागरण किसी गहरी साधना या ध्यानावस्था का फल है । दिव्य ऊर्जा इस कुंडलिनी शक्ति के जागरण से ही प्रस्फुटित होती है । सामान्य प्राण महाप्राण में कुंडलिनी जागरण से परिणत होता है । आत्मा परमात्मा बनता है । कुंडलिनी जागरण के प्रभाव के सम्बन्ध में अनेक साधकों और सन्तों ने समय समय पर अपने अनुभव प्रकट किये हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस कुंडलिनी उत्थान का वर्णन करते हुए लिखते हैं . "कुछ झुनझुनी सी पाँव से उठकर सिर तक जाती है । सिर में पहुँचने के पूर्व तक तो होश रहता है, पर उसके सर में पहुंचने पर मुर्छा आ जाती है । आँख, कान अपना काम नहीं करते । बोलना भी संभव नहीं होता । एक विचित्र निःशब्दता एवं समत्व की स्थिति उत्पन्न होती है । कुंडलिनी जब तक गले में नहीं पहुँचती, तब तक बोलना संभव है । जो झन झन करती हुई शक्ति ऊपर चढ़ती है वह एक ही प्रकार की नहीं है, उसकी गति भी एक ही प्रकार की नहीं है । शास्त्रों में उसके पाँच प्रकार हैं - १. चींटी के समान ऊपर चढ़ना। २. मेंढक के समान दो ती छलांग जल्दी जल्दी भरकर
फिर बैठ जाना।
३.
सर्प के समान सरसराहट और वक्रगति से चलना।
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