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________________ 2208 महामन्त्र णमोकार : एक वैज्ञानिक अन्वषण पंच परमेष्ठी के महान् गुणों की अनुभूति होती है। इससे शक्तिशाली होकर वह कष्टप्रद सांसारिकता से त्राण पाने में समर्थ होता है। मन्त्र शब्द का एक विशिष्ट अर्थ भी ध्यान देने योग्य है। मन अर्थात् चित्त की त्र अर्थात् तृप्त अवस्था अर्थात् पूर्ण अवस्था अर्थात् आत्म साक्षात्कार की परमेष्ठी तुल्य अवस्था ही मन्त्र है। वास्तव में चित शक्ति चैतन्य की संकुचित अवस्था में चित्त बनती है और वही विकसित होकर चिति (विशुद्ध आत्मा) बनती है।* "चित्त जब बाह्य वेद्य समूह को उपसंहृतं करके अन्तर्मुख होकर चिद्रूपता के साथ अभेद विमर्श सम्पादित करता है तो यही उसकी गुप्त मन्त्रणा है जिसके कारण उसे मन्त्र की अमिधा मिलती है। अतः मन्त्र देवता के विमर्श में तत्पर तथा उस देवता के साथ जिसने सामरस्य प्राप्त कर लिया है ऐसे आराधक का चित्त ही मन्त्र है, केवल विचित्र वर्ण संघटना ही नहीं।" वैदिक परम्परा के अन्तर्गत समस्त मन्त्रों को त्रितत्त्वों का संगठित रूप स्वीकार किया गया है। इन तीनों तत्त्वों के बिना किसी वस्तु और मन्त्र की रचना हो ही नहीं सकती। ये तीन तत्त्व हैं-शिव, शक्ति और अणु (आत्मा)। "शिवात्मकाः शक्तिरूपाज्ञया मन्त्रास्तथाणवाः। तत्ववय विभागेन, वर्तन्ते ह्यमितौजसः॥" नेत्र तन्त्र-19 मन्त्रों के भेद वैदिक परम्परा और श्रमण (जैन) परम्परा में मन्त्रों का सर्वप्रथम आधार मूलमन्त्र अथवा महामन्त्र है। महामन्त्र के गर्भ से ही अन्य मन्त्र जन्म लेते हैं। ओम (ॐ) पर दोनों परम्पराओं की गहरी आस्था है। इसका अर्थ अपने-अपने ढंग से दोनों ने किया है। शारदातिलक, राघव भट्टीया एवं सौभाग्य भास्कर ग्रन्थों में वैदिक (शैव-वैष्णव) परम्परा के मन्त्रों का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। डॉ० शिवशंकर अवस्थी ने उक्त ग्रन्थों की सहायता से मन्त्र-भेदों को विद्वत्तापूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है । मन्त्रों को प्रमुख पांच वर्गों में विभाजित किया गया है* 'मन्त्र और मातृकाओं का रहस्य' पृ० 190-191-ले० डॉ० शिवशंकर अवस्थी।
SR No.006271
Book TitleMahamantra Namokar Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherMegh Prakashan
Publication Year2000
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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