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मन्त्र और मन्त्रविज्ञान 19 हम शक्ति बाहर से प्राप्त नहीं करते अपितु हमारी सुषुप्त अपराजेय चैतन्य शक्ति जागृत एवं सक्रिय होती है।
मन्त्र का व्युत्पत्यर्थ एवं व्याख्या : ___ मन्त्र शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। इस शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की जा सकती है और कई अर्थ भी प्राप्त किए जा सकते हैं-- ___ मन्त्र शब्द 'मन' धातु (दिवादिगण) में प्टन (त्र) प्रत्यय तथा घन प्रत्यय लगाकर बनता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार इसका अर्थ होता है-जिसके द्वारा (आत्मा का आदेश) अर्थात स्वानुभव या साक्षात्कार किया जाए वह मन्त्र है।
दूसरी व्युत्पत्ति में मन धातु का 'विचारपरक' अर्थ लगाया जा सकता है और तब अर्थ होगा-मन्त्र वह है जिसके द्वारा आत्मा की विशुद्धता पर विचार किया जाता है।
तीसरी व्युत्पत्ति में मन् धातु को सत्कारार्थ में लेकर अर्थ किया जा सकता है-मन्त्र वह है जिसके द्वारा महान् आत्माओं का सत्कार किया जाता है। __ इसी प्रकार मन् को शब्द मानकर (क्रिया न मानकर) त्राणार्थ में व प्रत्यय जोड़कर पुल्लिङ्ग मन्त्रः शब्द बनाने से यह अर्थ प्रकट होता है कि मन्त्र वह शब्द शक्ति है जिससे मानव मन को लौकिक एवं पारलौकिक त्राण (रक्षा) मिलता है। __ मन्त्र वास्तव में उच्चरित किए जाने वाला शब्द मात्र नहीं है: उच्चार्यमान मन्त्र, मन्त्र नहीं है। मन्त्र में विद्यमानं अनन्त एवं अपराजेय अध्यात्म शक्ति परमेष्ठी शक्ति एवं दैवी शक्ति ही मन्त्र है। अतः मन्त्र शब्द में मन् +त्र ये दो,शब्द क्रमशः मनन-चिन्तन और त्राण अर्थात् रक्षा और शुभ का अर्थ देते हैं। मनन द्वारा मन्त्र पाठक की 1. मन् धातु के अनेक अर्थ हैं-यथा—(1) आदेश ग्रहण, (2) विचार करना,
(3) सम्मान करना। 2. मन् शब्द को संज्ञा मानने पर उसका अर्थ होगा-"मानव-मन को जिससे व
अर्थात् त्राण (रक्षा एवं शान्ति) मिले। 3. "वर्णात्मको न मन्त्रो, दशमुजदेहो न पञ्चवदनोंऽपि । ' संकल्पपूर्व कोटी, नादोल्लासो मवेन्मन्तः ॥"महार्थ मंजरी-पृ० 102