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- मन्त्र और मन्त्रविज्ञान शब्द अथवा शब्दों में संस्थापित दिव्यत्व एवं आध्यात्मिक ऊर्जा ही मन्त्र है। किसी ऋषि अथवा स्वयं ईश्वर-तीर्थंकर द्वारा अपनी तपःपूत वाणी में इन मन्त्रों की रचना की जाती है। इन मन्त्रों का प्रभाव युगयुगान्तर तक बराबर बना रहता है। मन्त्र में निहित शब्द, अर्थ और स्वयं मन्त्र साधन है। मन्त्र के द्वारा शुद्धतम आत्मोपलब्धि (मुक्ति) एवं लौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। मन्त्र का मुख्य लक्ष्य आध्यात्मिक विशुद्धता ही है। मन्त्र में निहित ईश्वरीय गुणों और शक्तियों का पवित्र मन और शुद्ध वचन से मनन एवं जप करने से मानव का सभी प्रकार का त्राण होता है और उसमें अपार बल का संचय होता है। "शब्दों में सम्पुटित दिव्यता ही मन्त्र है। मन्त्र के निम्नलिखित अंग होते हैं-मन्त्र का एक अंग ऋषि होता है.। जिसे. इस मन्त्र के द्वारा सर्वप्रथम आत्मानुभूति हुई और जिसने जगत् को यह मन्त्र प्रदान किया। मन्त्र का द्वितीय अंग छन्द होता है जिससे उच्चारण विधि का अनुशासन होता है। मन्त्र का तृतीय अंग देवता है जो मन्त्र का अधिष्ठाता है। मन्त्र का चतुर्थ अंग बीज होता है जो मन्त को शक्ति प्रदान करता है। मन्त्र का पंचम अंग उसकी समग्र शक्ति होती है। यह शक्ति ही मन्त्र के शब्दों की क्षमता है। ये सभी मिलकर मानव को उपास्य देवता की प्राप्ति करवा देते हैं।"1 मन्त्र केवल आस्था पर आधारित नहीं हैं। इनमें कोरी कपोल-कल्पना या चमत्कार उत्पन्न करने की प्रवृत्ति नहीं है। मन्त्र वास्तव में प्रवृत्ति की ओर नहीं अपितु निवृत्ति की ओर ही मानव की चित्त-वृतियों को निर्दिष्ट करते हैं। मन्त्रविज्ञान को समझकर ही मन्त्र क्षेत्र में आना चाहिए। "शब्द और चेतना के घर्षण से नई.विद्यत तरंगें उत्पन्न होती हैं। मन्त्र विज्ञान इसी घार्षणिक विद्युत ऊर्जा पर आधारित है।" मन्त्र से वास्तव में ___ 1. 'कल्याण'-उपासना अंक-1974 2. 'योग से शान्ति की खोज' पृ० 30-साध्वी राजीमती