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धर्म और उसकी आवश्यकता : 17. सर्वथा नये चैतन्य के साथ उभरना है। यदि और विलम्ब हुआ तो फिर मानव उस पाशविक धरातल पर पहुंच चुका होगा, जहां से उसे आत्मा का स्वर सुनाई ही नहीं देगा। भौतिक विकास और उपलब्धियों का पूर्ण स्वामी होकर भी मानव ने इनकी पराधीनता स्वीकार कर ली है। मानव चरित्र का ऐसा पतन इस युग की सबसे बड़ी क्षयंकरी दुर्घटना
- धर्मरूप-मन्त्रों का प्रमुख महत्व उनकी पारलौकिकता एवं अध्यात्म-दृष्टि में है। लौकिक-मंगल की पूर्ण प्राप्ति उससे संभव है परन्तु वह गौण है। वास्तव में अति संक्षेप में-सूत्र रूप में मन्त्रों द्वारा ही किसी धर्म को समझा जाता है। जब-जव कोई धर्म लुप्त होता है तो केवल मन्त्रों की ही जिह्वास्थता शेष रहती है और हम कालान्तर में अपने अतीत से पुनः जुड़ जाते हैं। जैन महामन्त्र अनाद्यनन्त है। उसमें जैन धर्म का समस्त आचार-विचार पूर्णतया अन्तःस्यूत है ।।