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के शिकार हो जाते हैं, तो उनका प्राकृतिक संतुलन स्खलित हो जाता है और कभी-कभी इतना अधिक कि मृत्यु तक हो जाती है। अतः मानव को संयम (मन, वचन, काय का) और व्रत-उपवास आदि का अभ्यास कराया जाता है। संसार की अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ पर्याप्त कृत्रिम, खर्चीली हैं और विश्वसनीय नहीं है। परंतु मानव नगर-सभ्यता के विकास के साथ अपनी प्रकृति और प्राकृतिक चिकित्सा के प्रति उपेक्षावान् होता जा रहा है। वह बहुत भटक चुका है। संभवतः आगामी शती प्राकृतिक चिकित्सा के पुनर्जागरण की होगी। .
यदि मानव विवेकमय संतुलित जीवन जी लेता है तो उसे डाक्टर की जरूरत नहीं है और यही है प्राकृतिक चिकित्सा । एलोपेथी, आयुर्वेद और होम्योपैथी. में यह मान्यता है कि जब हमारे ऊपर बाहरी जीवाणु आक्रमण करे और शरीर में प्रवेश कर लें तो हम बीमार हो जाते हैं। हमें इन कीटाणुओं को कृत्रिम उपायों से (दबा, इन्जेक्शन, आपरेशन) नष्ट करना होता है। तभी व्यक्ति स्वस्थ होता है। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार यदि हमारा शरीर संतुलित है तो बाहरी जीवाणु उस पर आक्रमण नहीं कर सकते। हाँ जब हमारा ही संतुलन बिगड़ता है तो हम स्वयं बीमार हो जाते हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा में 3 बातें मुख्य है। 1. शरीर को स्वतः नीरोग रखना। उसमें बाहरी जीवाणुओं को न
आने देना। आत्म-संयम से यह संभव है। 2. शरीर को बाहर-भीतर से शुद्ध रखना। यह नियत आहार-व्यवहार
से संभव है। एकासन उपवास, ध्यान भी। 3. शरीर को व्यायाम, वायुसेवन, पौष्टिक संतुलित आहार से स्वस्थ रखना।
यहाँ तक अत्यन्त सार-रूप में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रारूप प्रस्तुत किया गया है। यह केवल महामंत्र से संदर्भ जोड़ने के लिए है। अब जहाँ तक महामंत्र और प्राकृतिक चिकित्सा का संबंध है, यह सुस्पष्ट है कि संपूर्ण महामंत्र में प्रकृति के पाचों तत्त्व भरपूर मात्रा में है। उनका उपयोग आवश्यकतानुसार किया जा सकता है। प्रत्येक पद में प्राकृतिक तत्त्व कितनी मात्रा में है इसका विवरण प्रस्तुत है
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