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________________ लौकिक सिद्धिायों का सहज प्रदाता है। योग साधना महामंत्र चिकित्सा के संदर्भ में पंचभूतमय भौतिक जगत और अध्यात्मवाद का विरोधी संघर्ष बहुत पुराना है। एक दूसरे की महत्ता और आवश्यकता ये दोनों प्रायः स्वीकारते नहीं है, या फिर बहुत गौण रूप से मानते हैं। चार्वाक दर्शन नास्तिक दर्शन है। वह पंचभूतों के अलावा सृष्टि में और कुछ मानता ही नहीं है। तो चिकित्सा शास्त्र में शरीर को ही सर्वस्व माना गया है। उसी की रक्षा और पुष्टि को महत्त्व दिया गया है। चरक ने कहा-“सर्वमन्यत् परित्यज्य, शरीर मनु पालयेत्। अर्थात् सब कुछ छोड़कर शरीर की रक्षा करनी चाहिए। “शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनं" पहले शरीर फिर धर्म का पालन यह कथन भी है ही। यहाँ ध्यातव्य यह है कि चिकित्सा शास्त्र में आत्मा को गौण माना है, तो अध्यात्म में शरीर को गौण और एक साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। गौण का अर्थ उपेक्षणीय और व्याज्य न होकर द्वितीय महत्त्व की स्थिति समझना चाहिए। योग शब्द का अर्थ 1. आत्मा का परमात्मा में निमज्जन योग है। 2. कर्म को कुशलतापूर्वक करना योग है। 3.. संसार और कर्मों से मुक्त होकर शुद्ध स्वयं को पाना योग है। . 4. केवल स्वयं में डूब जाना-सब कुछ से पृथक अयोगी होकर स्वयं को पाना योग है-अयोग ही योग है। 5. शरीर और आत्मा का मैत्रीपूर्ण संबंध योग है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि संसार के प्रपंचों (क्रोध, मान, माया, लोभ) से मुक्त होकर अपने मूल समभावी, शांत स्वरूप से जुड़ना योग है। यह योग हमें महामंत्र की साधना से सुलभ हो सकता है। ज्ञान और आचरण का योग हो। मानव के दुःखों का मूल कारण चित्त की विकृति से उत्पन्न होने वाली अशांति है। शारीरिक कष्ट भी मन को प्रभावित करते हैं। हमारा 2170
SR No.006271
Book TitleMahamantra Namokar Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherMegh Prakashan
Publication Year2000
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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