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उच्चरित रूप 1. ओम्-यह ऊकारात्मक उच्चारणयुक्त एवं कुडलिनी जागरण में
सहायक । परंतु इसका उच्चारण भी ओकारात्मक ही किया जाता है जो ठीक नहीं है। यह उच्चारण ऋषियों, योगियों से ही संभव
है। इसमें श्वास भी दीर्घता और सस्वरता अपेक्षित है। 2. ओम्-यह दीर्घ से प्लुत होता हुआ उच्चारण होगा। ओकारात्मक
होगा। यही जैनों में मान्य है। यह लौकिक-पारलौकिक समृद्धि
का प्रदाता है। 3. ॐ-यह दीर्घ उच्चारण वाला ओम् है। यह त्रिदेव वाची है।
ओम् के अर्थपरक रूप 1. अनादि, स्वयम्भू, ईश्वरवाची, यज्ञादि में प्रयुक्त । ऋषि, मुनि, योगी,
आत्म-शुद्धि हेतु इसका पाठ करते है। 2. पूजन, भजन, जाप आदि में सामान्यतया प्रयुक्त 19 अर्थ। मूल
अर्थ-संरक्षण-पोषण भक्त की आत्मा का-भक्त के जीवन का गृहस्थ
का। 3. त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु, महेश वाची।
प्रणव-प्रणव शब्द ॐ के पर्यायवाची के रूप में प्रचलित एवं मान्य है। अनेक विद्वान् यह मानते हैं कि प्रणव ही मूल है और ओम् परवर्ती। प्रणवः अर्थात् प्रकण नूयते स्तूयते अनेन इति प्रणवः । पृथश्च प्रकर्षेण नवतां यात्रि अनेन इति प्रणवः । अर्थात जिससे प्रकर्षमय स्तुति हो और जो जपे-भजे जाने पर नवता किशोरत्त्व और शक्ति का संचार करे वह प्रणव हे। प्रणव-ईश्वरवाची है। प्रणव से 3 प्रकार की नवता प्राप्त होती है। 1 वैचारिक चिर यौवन 2. शारीरिक चिर यौवन 3. भावात्मक चिर यौवन। सभी प्रकार भी स्वस्थता-आत्मस्थता के लिए ॐ एवं प्रणव का अत्यधिक महत्त्व है। यह पद्य भी दृष्टव्य है--
"ओंकारं बिन्दु संयुक्त, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः।
कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः।।" अर्थात बिन्दु सहित ओंकार का योगी निरन्तर ध्यान करते हैं।
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