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धर्म और उसकी आवश्यकता 152 भस्म हो सकता है। अतः आज उसे धार्मिक जिजीविषा की-आध्यात्मिक जिजीविषा की गतयुगों की अपेक्षा अत्यधिक आवश्यकता है। इस संदर्भ में एक अत्यन्त सटीक उदाहरण दृष्टव्य है
औरंगजेब ने अपने एक पत्र में अपने अध्यापक को लिखा है, "तुमने मेरे पिता शाहजहां से कहा था कि तुम मुझे दर्शन पढ़ाओगे। यह ठीक है, मुझे भली-भाँति याद है कि तुमने अनेक वर्षों तक मुझे वस्तुओं के सम्बन्ध में ऐसे अनेक अव्यक्त प्रश्न समझाए, जिनसे मन को कोई सन्तोष नहीं होता और जिनका मानव समाज के लिए कोई उपयोग नहीं है। ऐसी थोथी धारणाएं और खाली कल्पनाएं, जिनकी केवल यह विशेषता थी कि उन्हें समझ पाना बहुत कठिन था और भूल जाना बहुत सरल 'क्या तुमने कभी मुझे यह सिखाने की चेष्टा की कि शहर पर घेरा कैसे डाला जाता है या सेना को किस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है ? इन वस्तुओं के लिए मैं अन्य लोगों का आभारी हं, तुम्हारा बिलकुल नहीं।" आज जो संसार इतनी संकटापन्न स्थिति में फंसा है, वह इसलिए कि वह 'शहर पर घेरा डालने' या 'सेना को व्यवस्थित करने के विषय में सब कुछ जानता है और जीवन के मूल्यों के विषय में, दर्शन और धर्म के केन्द्रीभूत प्रश्नों के सम्बन्ध में, जिनको कि वह थोथी धारणा और कोरी कल्पनाएं कहकर एक ओर हटा देता है, बहुत कम जानता है।*
विवेक पुष्ट आस्था धर्म की रीढ़ है। हम अनेक धार्मिक तत्वों को प्रायः ठीक समझे बगैर ही उन्हें तुच्छ और अनुपादेय कहकर उपेक्षित कर देते हैं। विद्या प्राप्ति के पूर्व और विद्या प्राप्ति के समय तथा बाद में भी विनय गुण की महती आवश्यकता है। महामन्त्र णमोकार इसी नमन गुण का महामन्त्र है। उपाध्याय अमर मुनि जी ने अपनी पुस्तक 'महामन्त्र णमोकार' में लिखा है-"मनुष्य के हृदय की कोमलता, समरसता, गुण-ग्राहकता एवं भावुकता का पता तभी लग सकता है जबकि वह अपने से श्रेष्ठ एवं पवित्र महान् आत्माओं को भक्ति भाव से गद्गद् होकर नमस्कार करता है, गुणों के समक्ष अपनी अहंता को त्यागकर गुणी के चरणों में अपने आपको सर्वतोभावेन अर्पित कर देता
* 'धर्म और समाज' पृ० 5-डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् (हिन्दी अनुवाद),