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अनुभव करता है। अरिहत परमेष्ठी के अगरक्षक-भक्त देव भी भक्तों की रक्षा करते हैं। प्रत्येक तीर्थंकर के अंगरक्षक यक्ष-यक्षिणी है ही। हमारे सभी मंदिरों में तीर्थंकरों की सशरीर अरिहंत अवस्था की उपासना होती है। कहीं-कहीं यक्ष यक्षिणी अगल-बगल में होते हैं तो कहीं स्वतंत्र-कक्ष की वेदी पर।
महामंत्र के रोग-निवारक पक्ष पर चर्चा प्रारंभ करने से पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि हमें स्वयं में ईमानदार होना होगा। अर्थात् हम. देव, देवांगना, यक्ष, यक्षिणी को संसारी मान कर उन्हें तुच्छ समझे, उनका सम्मान न करे, उन्हें मुक्ति-मार्ग में बाधा मानें और उनसे रोग निवारण, रक्षा और सहायता भी चाहे, तो यह हमारा दोगलापन ही होगा और कुछ नहीं। जीवन में पुलिस, मित्र, वकील, डाक्टर से सहायता पाकर हम कृतज्ञता प्रकट करते हैं, एहसान मानते हैं।
निष्कर्ष यह है कि भौतिक पक्ष में संतुलन लाकर ही हम अध्यात्म प्राप्त कर सकते हैं, कोरी उड़ान भरने से नहीं। बुखार, सिर-दर्द, पेट-दर्द एवं भूख को जीतकर ही पूजन, भजन और अध्यात्म का सिलसिला चल सकता हैं। यह हमारा सहस्त्रों वर्षों का व्यक्तिगत एवं सामूहिक अनुभव है कि हम लोक में जीते हैं और परलोक का मृदंग पीटते हैं, यह आत्म-प्रवंचना है। हमें स्वयं में संतुलन लाना ही होगा। सरल होना बहुत कठिन है। हमारे सभी तीर्थंकर क्षत्रिय थे। वे लोक-जीवन एवं गृहस्थाश्रम में रहे और समय आने पर तुरंत उत्कृष्ट त्याग एवं साधना के साथ परम-पद प्राप्त किया। 1. रुग्णता या अस्वस्थता शारीरिक एवं मानसिक आघात या असंतुलन
से संबंधित होती है। अपनी सहज शरीर एवं मन की स्थिति में न होना अस्वस्थता या रुग्णता है। मन शरीरस्थ इन्द्रियों और अंगों का राजा है, नियामक है अतः इसका सहज होना परम आवश्यक है। अस्वस्थता के उपचार के लिए एलोपैथी, होम्योपैथी, यूनानी, सिद्ध, आयुर्वेदीय आदि चिकित्सा पद्धतियाँ विश्व में प्रचलित है। दैवी, मंत्रपरक एवं स्तोत्रपरक विश्वास मूलक पद्धति भी प्रचलित
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