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1 128 महामन्त्र णमोकार : एक वैज्ञानिक अन्वेषण
कान्ताकाञ्चनचशेष भ्राम्यतिभवनवयम।
सासु तेषु विरक्तोयः द्वितीयः परमेश्वरः॥ सारा संसार स्त्री और कांचन के चक्र में घूम रहा है, जो व्यक्ति इनसे विरक्त रहता है, वह दूसरा परमेश्वर है। साधु अर्हत् बनने की साधना कर रहा है, इससे वह भी परमेष्ठी बन जाता है।
मथितार्थ - उक्त महामन्त्र विशुद्ध रूप से गुणों को सर्वोपरि महत्त्व देकर उनकी वन्दना का मन्त्र है। किसी व्यक्ति, जाति या धर्म विशेष का इसमें उल्लेख नहीं है। अतः यह सार्वजनिक, सार्वधार्मिक एवं देशकालजयी सर्वप्रिय नमस्कार महामन्त्र है। इसमें नमः शब्द के द्वाग भक्त की निरहंकारी निर्मल मनःस्थिति प्रकट की गयी है तो दूसरी ओर गुणात्मकता के कारण विश्व विश्रुत शक्तियों की महत्ता को स्वीकारा गया है; किसी सांसारिक या पारलौकिक लाभ का संकेत भी भक्त नहीं देता है। अतः भक्त की भी महानता का पता लगता ही है। संसार में सरल और विशुद्ध विनयी होना सबसे कठिन काम है। यह मन्त्र सरलता की नींव पर ही खड़ा है। सरलता का अर्थ है निर्विकार-- निष्कर्म अवस्था।
पवक्रम___ णमोकार महामन्त्र में पदक्रम रखा गया है-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इन पंच परमेष्ठियों के गुणों के आधार पर जो वरिष्ठता का क्रम वनता है उसके अनुसार णमोकार मन्त्र का क्रम ठीक नहीं बैठता है। सिद्ध परमेष्ठी में रत्नत्रय की पूर्णता होती है और अष्ट कर्मों का पूर्ण क्षय भी वे कर चुके होते हैं। ये बातें अरिहन्त परमेष्ठी में नहीं होती हैं अतः सिद्धों को मन्त्र में प्रथम स्थान प्राप्त होना चाहिए था। यह शंका स्वाभाविक है । परन्तु यह महामन्त्र अतिप्राचीन है और अनाद्यनन्त है। इसके रचयिता भी यदि रहे हों तो कमसे-कम परममेधावी तीर्थंकर कोटि के ही रहे होंगे। उनकी वाणी को ही गणधरों ने ग्रथित f..या होगा। तब क्या उन्हें इस वरिष्ठता र म का ज्ञान न था ? अवश्य था। तब उक्त क्रम के लिए उनके मन में कोई
• 'तीर्थकर', नव-दिस० 80, पृ० 36
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