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________________ महामन्त्र णमोकार अर्थ, व्याख्या ( पदक्रमानुसार ) 8 1278 प का अन्तर होने पर भी साधु भी पूर्णतया वन्दय पंचम परमेष्ठी हैं । लक्ष्य सब परमेष्ठियों का एक है और वह अटल है । ये 28 मूलगुणों के धारक हैं। समस्त अन्तः बाह्य परिग्रह को त्यागकर शुद्ध मन से मुनिधर्म को अंगीकृत करके हो ये साधु बनते हैं । ये साधु परम अहिंसक, अपरिग्रही एवं तपोनिष्ठ होते हैं । आचार्य, उपाध्याय और साधु को देव या परमेष्ठी मानने में कभीकभी श्रावकों या भक्तों के मन में शंका उठती है कि अरिहन्त और सिद्ध तो आत्मस्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं, निष्कर्मता भी उन्हें प्राप्त हो चुकी है अतः उनका देवत्व निश्चित हो चुका है – उनका परमेष्ठीत्व प्रमाणित हो चुका, परन्तु आचार्य, उपाध्याय और साधु में तो अभी रत्न की पूर्णता का अभाव है। आत्मस्वरूप की प्राप्ति अभी नहीं हुई है, अभी घातिया कर्मों का नाश भी नहीं किया है, अतः इन्हें देव या परमेष्ठी मानना उचित नहीं है । इस शंका का समाधान यह है कि उक्त शंका अंशतः ठीक है परन्तु पूर्णतया ठोक नहीं है । उक्त तीन परमेष्ठी सुनिश्चित रूप से रत्नत्रय के आराधक हैं और अभी उनकी आराधना अधूरी है परन्तु उसकी पूर्णता सुनिश्चित है । रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, एवं सम्यक् चारित्र्य के अनन्त भेद हैं और इन सबमें देवत्व है । अतः इनका आंशिक पालन करने वाले और पूर्णता के प्रति कृतसंकल्प उक्त आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी भी वास्तविक परमेष्ठी हैं । आत्म-विकास की अपेक्षा से उक्त पांचों को परमेष्ठी मानकर नमस्कार किया गया है । प्रशस्त विचारक आचार्य तुलसी जी ने भी उक्त शंका का समुचित समाधान प्रस्तुत किया है - " आचार्य और उपाध्याय अरिहन्तों के प्रतिनिधि होते हैं। अरिहन्तों की अनुपस्थिति में आचार्य और उपाध्याय उनका काम करते हैं । इसीलिए उन्हें भी परमेष्ठी मान लिया गया। अब प्रश्न रहा साधु का । इसका सीधा समाधान यही है कि अर्हत् हो, आचार्य हो या उपाध्याय हो - ये सब पहले साधु हैं और बाद में और कुछ। वास्तव में तो साधु ही परमेष्ठी का रूप है | भगवद् गीता की टीका में एक पद्य है - /
SR No.006271
Book TitleMahamantra Namokar Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherMegh Prakashan
Publication Year2000
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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