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जैन दर्शन और संस्कृति और असमनस्क जीवों की जन्म-प्रक्रिया ‘सम्मूर्छन'—ऐसा विभाग करना आवश्यक था। जन्म-विभाग के आधार पर चैतन्य-विकास का सिद्धान्त स्थिर होता है—गर्भज समनस्क और सम्मूर्छन अमनस्क।
गर्भज जीवों के मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच-ये दो वर्ग हैं।
गर्भाधान की स्वाभाविक पद्धति स्त्री-पुरुष का संयोग है। कृत्रिम रीति से वीर्य-प्रक्षेप के द्वारा भी गर्भाधान हो सकता है। गर्भ-प्रवेश की स्थिति ..
गौतम ने पूछा-भगवान् ! जीव गर्भ मे प्रवेश करते समय स-इन्द्रिय होता है अथवा अन्-इन्द्रिय?
भगवान् बोले-गौतम ! स-इन्द्रिय भी होता है. और अन्-इन्द्रिय भी।
गौतम ने फिर पूछा-यह कैसे, भगवन्? ___ भगवान् ने उत्तर दिया-द्रव्य-इन्द्रिय की अपेक्षा से वह अन-इन्द्रिय होता है और भाव-इन्द्रिय की अपेक्षा से स-इंद्रिय ।
इसी प्रकार दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने बताया-गर्भ में प्रवेश करते समय जीव स्थूल-शरीर (औदारिक, वक्रिय, आहारक) की अपेक्षा से अ-शरीर और सूक्ष्म-शरीर (तैजस, कार्मण) की अपेक्षा से स-शरीर होता है।
गर्भ, में प्रवेश पाते समय जीव का पहला आहार ओज और वीर्य होता है। गर्भ-प्रविष्ट जीव का आहार माँ के आहार का ही सार-अंश होता है। उसके कवल-आहार नहीं होता। वह. समूचे शरीर से आहार लेता है और समूचे शरीर से परिणत करता है। उसके उच्छ्वास-नि:श्वास बार-बार होते हैं। बाहरी स्थिति का प्रभाव
गर्भ में रहे हुए जीव पर बाहरी स्थिति का आश्चर्यकारी प्रभाव होता है। किसी-किसी गर्भगत जीव में वैक्रिय-शक्ति (विविध रूप बनाने की सामर्थ्य) होती है। वह शत्रु-सैन्य को देखकर विविध रूप बनाकर उससे लड़ सकता है। उसमें अर्थ, राज्यभोग और काम. की प्रबल आकांक्षा उत्पन्न हो जाती है। कोई-कोई धार्मिक प्रवचन सुन विरक्त बन जाता है; उसका धर्मानुराग तीव हो जाता है। प्राण और पर्याप्ति
प्राणी का जीवन प्राण-शक्ति पर अवलम्बित रहता है। प्राण-शक्तियाँ दस