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________________ पहले अण्डा या पहले मुर्गी? ५७ जिस प्रकार एक ही आकाश धर्म-अधर्म के द्वारा लोक और अलोक-इन दो भागों में बंटता है, ठीक वैसे ही इनके द्वारा लोकाकाश के तीन विभाग और प्रत्येक विभाग की भिन्न आकृतियाँ बनती हैं। धर्म-द्रव्य और अधर्म-द्रव्य कहीं विस्तृत हैं और कहीं संकुचित । वे नीचे की ओर विस्तृत रूप से व्याप्त हैं, अत: अधोलोक का आकार ओंधे किए हुए शराब जैसा बनता है। मध्यलोक में वे कृश रूप में हैं, इसलिए उसका आकार बिना किनारी वाली झालर के समान हो जाता है। ऊपर की ओर वे फिर कुछ-कुछ विस्तृत होते चले गए हैं, इसलिए ऊर्ध्व लोक का आकार ऊर्ध्वमुख मृदंग जैसा होता है। अलोकाकाश में दूसरा कोई द्रव्य नहीं, इसलिए उसकी कोई आकृति नहीं बनती। लोकाकाश की अधिक से अधिक मोटाई सात रज्जु की है। लोक चार प्रकार का है-द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक, भावलोक। द्रव्यलोक पंचास्तिकायमय एक है, इसलिए वह सांत है। लोक की परिधि असंख्य योजन क्रोडाक्रोड की है, इसलिए क्षेत्रलोक भी सांत है। ... सापेक्षवाद के आविष्कर्ता प्रो. आइन्स्टीन ने लोक का व्यास एक करोड़ 'अस्सी लाख प्रकाशवर्ष माना है। ‘एक प्रकाशवर्ष' उस दूरी को कहते हैं, जो प्रकाश की किरण १८६००० मील प्रति सेकण्ड के हिसाब से एक वर्ष में तय करती है। भगवान् महावीर ने देवताओं की 'शीघ्रगति की कल्पना से लोक की ' मोटाई को समझाया है। जैसे-छह देवता लोक का अन्त लेने के लिए शीघ्रगति से छहों की दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊँची और नीची) में चले । ठीक उसी समय एक सेठ के घर एक हजार वर्ष की आयु वाला एक पुत्र जन्मा....उसकी आयु समाप्त हो गई। उसके बाद हजार वर्ष की आयु वाले उसके बेटे-पोते हुए। इस प्रकार सात पीढ़ियाँ बीत गईं। उनके नामगोत्र भी मिट गए, तब तक वे देवता चलते रहे, फिर भी लोक के अन्त तक नहीं पहुँचे। हाँ, वे चलते-चलने अधिक भाग पार कर गए। बाकी रहा वह भाग कम है-वे चले उसका असंख्यातवां भाग बाकी रहा है। जितना भाग चलना बाकी रहा है उससे असंख्यात गुणा भाग पार कर चुके हैं। यह लोक इतना बड़ा है। काल और भाव की दृष्टि से लोक अनन्त है। ऐसा कोई काल नहीं, जिसमें लोक का अस्तित्व न हो। १. एक देवता मेरु पर्वत की चूलिका पर खड़ा है-एक लाख योजन की ऊँचाई में खड़ा है। नीचे चारों दिशाओं में चार दिक्-कुमारिकाएँ हाथ में बलिपिण्ड लेकर बहिर्मुखी रहकर उस बलिपिण्ड को एक साथ फेंकती हैं। उस समय वह देवता दौड़ता है। चारों बलिपिण्डों को जमीन पर गिरने से पहले हाथ में लेता है। इस गति का नाम 'शीघ्रगति' है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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