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जैन दर्शन और संस्कृति ३. दो पृथक् पृथक् परमाणु और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध ।
४. चारों पृथक्पृ थक् परमाणु । पुद्गल में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य
___पुद्गल शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। द्रव्यार्थतया शाश्वत है और पर्यायरूप में अशाश्वत । परमाणु-पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से अचरम (अंतिम नहीं) है। यानी परमाणु संघात-रूप में परिणत होकर भी पुन: परमाणु बन जाता है, इसलिए द्रव्यत्व की दृष्टि से चरम (अन्तिम-ultimate) नहीं है। क्षेत्र, काल
और भाव की अपेक्षा से चरम भी होता है और अचरम भी। पुद्गल की द्विविधा परिणति
पुद्गल की परिणति दो प्रकार की होती है : १. सूक्ष्म, २. बादर-स्थूल।
अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध भी जब तक सूक्ष्म परिणति में रहता है, तब तक इन्द्रियगाह्य नहीं बनता और सूक्ष्म परिणति वाले स्कन्ध चतुःस्पर्शी होते हैं। उत्तरवर्ती चार स्पर्श स्थूल परिणाम वाले स्कन्धों में ही होते हैं। गुरु-लघु और मृदु-कठोर-ये स्पर्श पूर्ववर्ती चार स्पर्शों के सापेक्ष संयोग से बनते हैं। रूक्ष-स्पर्श की बहुलता से लघु-स्पर्श होता है और स्निग्ध की बहुलता से गुरु । शीत और स्निग्ध स्पर्श की बहुलता से मृदु-स्पर्श और उष्ण तथा रूक्ष की बहुलता से कर्कश-स्पर्श बनता है। तात्पर्य यह है कि सूक्ष्म परिणति की निवृत्ति के साथ-साथ जहाँ स्थूल परिणति होती है, वहाँ चार स्पर्श बढ़ जाते हैं। पुद्गल के प्रकार
पुद्गल द्रव्य चार प्रकार का माना गया है : १. स्कन्ध-परमाणु-प्रचय । २. स्कंध-देश-स्कन्ध का कल्पित विभाग। ३. स्कन्ध-प्रदेश-स्कन्ध से अपृथग्भूत अविभाज्य अंश । ४. परमाणु-स्कन्ध से पृथक् निरंश-तत्त्व।
प्रदेश और परमाणु में सिर्फ स्कन्ध से पृथग भाव (अलग होने)और अपृथग् भाव (जुड़े रहने) का अन्तर है।