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जैन दर्शन और संस्कृति
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परमाणु की अतीन्द्रियता
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परमाणु इन्द्रियग्राह्य नहीं होता, फिर भी अमूर्त नहीं है, वह रूपी है पारमार्थिक प्रत्यक्ष से वह देखा जाता है । परमाणु मूर्त होते हुए भी दृष्टिगोचर नहीं होता, इसका कारण है उसकी सूक्ष्मता ।
केवल-ज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थ हैं इसलिए केवली (सर्वज्ञ और अतीन्द्रिय- दृष्टा ) तो परमाणु को जानते ही हैं, अकेवली यानी छद्मस्थ अथवा क्षायोपशमिक ज्ञानी (जिसका आवरण - विलय अपूर्ण है) परमाणु को जान भी सकता है और नहीं भी । अवधिज्ञानी (रूपी द्रव्य विषयक प्रत्यक्ष ज्ञान वाला व्यक्ति) उसे जान सकता है । इन्द्रिय- प्रत्यक्ष वाला व्यक्ति उसे नहीं जान
सकता ।
परमाणु- समुदाय और पारमाणविक जगत
यह दृश्य - जगत – पौद्गलिक जगत् परमाणु- संघटित है । परमाणुओं से स्कन्ध बनते हैं और स्कन्धों से स्थूल पदार्थ । पुद्गल में संघातक और विघातक — ये दोनों शक्तियाँ हैं । पुद्गल शब्द में ही 'पूरण और गलन' इन दोनों का मेल है। परमाणु के मेल से स्कन्ध बनता है और एक स्कन्ध के टूटने से भी अनेक स्कन्ध बन जाते हैं । यह गलन ( fusion ) और मिलन (fission) की प्रक्रिया स्वाभाविक भी होती है और प्राणी के प्रयत्न से भी । पुद्गल की अवस्थाएँ सादि-सान्त होती हैं, अनादि - अनन्त नहीं । इसलिए एक पौद्गलिक पदार्थ को दूसरे पौद्गलिक पदार्थ के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है । पारे को सोने में बदला जा सकता है। पुद्गल में अगर वियोजक शक्ति नहीं होती, विज्ञान की दुनिया में लगभग १०० वर्षों तक यह धारणा बनी रही कि संसार के पदार्थ ६२ मूल तत्त्वों से बने हैं, जैसे सोना, चाँदी, लोहा, तांबा, पारा आदि। ये तत्त्व अपरिवर्तनीय माने गए अर्थात् न तो लोहे को सोने में और न सीसे को चाँदी आदि में बदला जा सकता है । फिर रदरफोर्ड और टामसन के प्रयोगों ने यह सिद्ध कर दिया कि चाहे लोहा हो या सोना, दोनों ही द्रव्यों के परमाणु एक-से ही कणों से मिलकर बने हैं। उदाहरण के लिए पारे के अणु का भार (atomic wieght ) २०० होता है । २०० का अर्थ है हाइड्रोजन के परमाणु से २०० गुणा भारी । (हाइड्रोजन के परमाणु को इकाई माना गया है ।) उसको प्रोटोन द्वारा विस्फोटित किया गया जिसमें वह प्रोटोन पारे में घुलमिल गया और उसका भार २०१ हो गया । (प्रोटोन का भार १ होता है), तब स्वत: उस
क्रमश:.