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________________ ३६. . जैन दर्शन और संस्कृति फैलते हैं और काल के निर्मित्त से उनमें पौर्वापर्य या क्रमानुगत प्रसार होता है। समयों का जो प्रचय है वही काल द्रव्य का ऊर्ध्व-प्रचय है। काल स्वयं समय-रूप है। उसकी परिणति किसी दूसरे निमित्त की अपेक्षा से नहीं होती। केवल ऊर्ध्व-प्रचय वाला द्रव्य अस्तिकाय नहीं होता। काल को छोड़कर अन्य पाँचों द्रव्य सावयवी होने के कारण विस्तार (extention) वाले हैं। यह विस्तार क्षेत्र की दृष्टि से एक, दो या तीन आयामों में सम्भव है पर काल का प्रत्येक समय स्वतन्त्र है, इसलिए उसका विस्तार संभव नहीं है। काल के विभाग काल चार प्रकार का होता है—प्रमाण-काल, यथायुनिवृत्ति-काल, मरण-काल और अद्धा-काल। काल के द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं, इसलिए उसे प्रमाण-काल कहा जाता ___ जीवन और मृत्यु भी काल-सापेक्ष हैं, इसलिए जीवन के अवस्थान को यथायुनिवृत्ति-काल और उसके अन्त को मरण-काल कहा जाता है। सूर्य, चन्द्र आदि की गति से सम्बन्ध रखने वाला अद्धा-काल कहलाता है। काल का प्रधान-रूप अद्धा-काल ही है शेष तीनों इसी के विशिष्ट रूप हैं। अद्धा-काल व्यावहारिक है। वह मनुष्य-लोक में ही होता है, इसलिए मनुष्य-लोक को ‘समय-क्षेत्र' कहा जाता है। निश्चय काल जीव-अजीव का पर्याय है, वह लोक अलोक व्यापी है। उसके विभाग नहीं होते। समय से लेकर पुद्गल-परावर्त तक के जितने विभाग हैं वे सब अद्धा-काल के हैं। इसका सर्व-सूक्ष्म भाग 'समय' कहलाता है। यह अविभाज्य होता है। इसकी प्ररूपणा कमलपत्र-भेद और वस्त्र-विदारण के द्वारा की जाती है (क) एक-दूसरे से सटे हुए कमल के सौ पत्तों को कोई बलवान् व्यक्ति सूई से छेद देता है, तब ऐसा ही लगता है कि सब पत्ते एक साथ ही छिद गए, किन्तु यह होता नहीं। जिस समय पहला पत्ता छिदा, उस समय दुसरा नहीं। इसी प्रकार सब का छेदन क्रमश: होता हैं। (ख) एक कलाकुशल युवा और बलिप्ठ जुलाहा जीर्ण-शीर्ण वस्त्र या साड़ी को इतनी शीघ्रता से फाड़ डालता है कि दर्शक को ऐसा लगता है मानो सारा वस्त्र एक साथ फाड़ डाला, किन्तु ऐसा होता नहीं। वस्त्र अनेक तन्तुओं से बनता है। जब तक ऊपर के तन्तु नहीं फटते तब तक नीचे के तन्तु नहीं फट सकते। अत: यह निश्चित है कि वस्त्र फटने में काल-भेद होता है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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