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________________ जैन दर्शन और संस्कृति (यहाँ E = ऊर्जा m = संहति और c= प्रकाश का वेग है) द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। जैन-दर्शन में मातृपदिका' का सिद्धान्त भी यही है उत्पादध्वविनाशैः परिणाम: क्षण क्षणे। द्रव्ययाणामविरोधश्च, प्रत्यक्षादिह दृश्यते ।। --"उत्पाद, ध्व और विनाश-द्रव्यां का यह त्रिविध-लक्षण परिणमन प्रतिक्षण बिना विरोध प्रत्यक्ष होता रहता है।” इस श्लोक में प्रयुक्त-"उत्पाद ध्रुव और व्यय-द्रव्यों का यह त्रिविध लक्षण परिणमन प्रतिक्षण होता रहता है"-इन शब्दों में और “जिसे द्रव्य का नाश हो जाना समझा जाता है, वह उसका रूपान्तरण-मात्र है"-इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। वस्तुदृष्ट्या संसार में जितने द्रव्य हैं, उतने ही थे और उतने ही रहेंगे। उनमें से न कोई घटता है और न कोई बढ़ता है। अपनी-अपनी सत्ता की परिधि में सब द्रव्य जन्म और मृत्यु, उत्पाद और नाश पाते रहते हैं। आत्मा की भी सापेक्ष मृत्यु होती है। तन्तुओं से पट या दूध से दही-ये सापेक्ष उत्पन्न होते हैं। जन्म और मृत्यु दोनों सापेक्ष हैं-ध्रुव द्रव्य की पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं के सूचक हैं। सूक्ष्मदृष्ट्या - पहला क्षण सापेक्ष-उत्पाद और दूसरा क्षण सापेक्ष-नाश का हेतु है । स्थूलदृष्ट्या पहला क्षण सापेक्ष-उत्पाद और दूसरा क्षण सापेक्ष-नाश का हेतु है। स्थूलदृष्ट्या स्थूल पर्याय का पहला क्षण जन्म और अन्तिम क्षण मृत्यु के व्यपदेश (संज्ञा या नामकरण) का हेतु है। __“पुरुष (आत्मा) नित्य है और प्रकृति (जड़) परिणामी नित्य है"- इस प्रकार सांख्य भी नित्यानित्यत्ववाद स्वीकार करता है। नैयायिक और वैशेपिक परमाणु, आत्मा आदि को नित्य मानते हैं तथा घट, पट आदि को अनित्य । समूहापेक्षा से ये भी परिणामी नित्यत्ववाद को स्वीकार करते हैं, किन्तु जैन दर्शन की तरह द्रव्य-मात्र को परिणामी नित्य नहीं मानते। महर्षि पतंजलि. कुमारिल भट्ट. पार्थसार मिश्र आदि न ‘परिणामी नित्यत्ववाद' को एक स्पष्ट सिद्धांत के रूप में स्वीकार नहीं किया. फिर भी उन्होंने इसका प्रकारान्तर से पूर्ण समर्थन किया। आकाश और दिक् ऊपर बताए गए छह द्रव्यों में तीसरा द्रव्य आकाशास्तिकाय है। समझने में सुविधा हो. इस दृष्टि से हम पहले आकाश की चर्चा करते हैं, बाद में धर्म-द्रव्य अधर्म-द्रव्य की चर्चा करेंगे। १. उत्पाद यय और धौव्य को मात पदिका कहते है !
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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