________________
दर्शन है सत्यं शिवं सुन्दरं की त्रिवेणी
१५
क्रियावाद । भगवान् महावीर ने कहा- -" लोक- अलोक, जीव- अजीव, धर्म-अधर्म, बन्धन - मोक्ष, पुण्य-पाप, क्रिया-अक्रिया नहीं हैं, ऐसी संज्ञा मत रखो किन्तु ये सब हैं, ऐसी संज्ञा रखो ।”
श्रद्धा और युक्ति का समन्वय
यह निर्ग्रथ-प्रवचन (जैन धर्म या भगवान् महावीर के सिद्धान्त) श्रद्धालु के लिए जितना आप्तवचन है, उतना ही एक बुद्धिवादी के लिए युक्तिवचन । इसीलिए आगम - साहित्य में अनेक स्थानों पर प्रमाण की चर्चा की गई है। भगवान् महावीर ने जहाँ श्रद्धावान् को 'मेधावी' कहा है, वहाँ “मतिमन् ! देख, विचार” – इस प्रकार स्वतंत्रतापूर्वक सोचने-समझने का अवसर भी दिया है । यह संकेत उत्तरवर्ती आचार्यों की वाणी में यों पुनरावर्तित हुआ—
“परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो, न तु गौरवात् । "
मोक्ष-दर्शन
" एयं पासगस्य दंसणं" - " यह दृष्टा का दर्शन है ।'
सही अर्थ में जैन दर्शन कोई वादविवाद लेकर नहीं चलता। वह आत्म- मुक्ति का मार्ग है, अपने आपकी खोज और अपने-आपको पाने का रास्ता है। इसका मूल मंत्र है - 'सत्य की एषणा करो' 'सत्य को ग्रहण करो', 'सत्य में धैर्य रखो', 'सत्य ही लोक में सारभूत है ।'
जैन दर्शन का आरम्भ
यूनानी दर्शन का आरम्भ आश्चर्य से हुआ माना जाता है। यूनानी दार्शनिक अफलातून ( प्लेटो) का प्रसिद्ध वाक्य है- “ दर्शन का उद्भव आश्चर्य से होता है । "
पश्चिमी दर्शन का उद्गम संशय ( doubt ) से हुआ - ऐसी मान्यता है । भारतीय दर्शन का स्रोत है— दुःख निवृत्ति के उपाय की जिज्ञासा ।
दुःख
जैन दर्शन इसका अपवाद नहीं है। यह संसार अध्रुव (अनित्य) और दुःखबहुल है । वह कौन - सा कर्म है, जिसे स्वीकार कर मैं दुर्गति से बचूं, - परम्परा से मुक्ति पा सकूं — इस चिंतन का फल है- आत्मवाद । "सुचीर्ण कर्म का फल सत् (अच्छा ) होता है और दुश्चीर्ण कर्म का फल असत् (बुरा) ।”
" - यह कर्मवाद है 1