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जैन दर्शन और संस्कृति का लक्ष्य है-समाज की वर्तमान अवस्था का सुधार। अब हम देखते हैं कि दर्शन शब्द जिस अर्थ में चला, अब वह अर्थ उसमें नहीं रहा।
हरिभद्र सूरि ने वैकल्पिक दशा में चार्वाक मत को छह दर्शनों में स्थान दिया है। मार्स-दर्शन भी आज लब्धप्रतिष्ठ है; इसलिए इसको दर्शन न मानने का आग्रह करना सत्य से आंखें मूंदने जैसा है। दर्शन की धाराएँ
दर्शनों की विविधता या विविध-विषयता के कारण 'दर्शन' का प्रयोग एक-मात्र आत्मविचार-सम्बन्धी नहीं रहा इसलिये अच्छा है कि विषय की सूचना के लिये उसके साथ मुख्यतया स्वविषयक विशेषण रहे। आत्मा को मूल मानकर चलने वाले दर्शन का मुख्यतया प्रतिपाद्य विषय धर्म है इसलिए आत्ममूलक दर्शन की ‘धर्म-दर्शन' संज्ञा रखकर चलें तो विषय के प्रतिपादन में बहुत सुविधा होगी।
धर्म-दर्शन का उत्स (मूल स्रोत) आप्तवाणी (आगम) है। ठीक भी है। आधारशून्य विचार-पद्धति किसका विचार करे? सामने कोई तत्त्व नहीं तब किसकी परीक्षा करे? प्रत्येक दर्शन अपने मान्य तत्त्वों की व्याख्या से शुरू होता है। सांख्य या जैन दर्शन, नैयायिक या वैशेषिक दर्शन, किसी को भी लें, सब में स्वाभिमत तत्त्वों की ही परीक्षा है। उन्होंने अमुक-अमुक संख्याबद्ध तत्त्व क्यों माने, इसका उत्तर देना दर्शन का विषय नहीं, क्योंकि वह सत्यदृष्टा तपस्वियों के साक्षात्-दर्शन का परिणाम है। माने हुए तत्त्व सत्य हैं या नहीं, उनकी संख्या संगत है या नहीं, यह बताना दर्शन का काम है। दार्शनिकों ने ठीक यही किया है इसलिए यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि दर्शन का मूल आधार आगम है।
वैदिक निरुक्तकार इस तथ्य को एक घटना के रूप में व्यक्त करते हैं। ऋषियों के उत्क्रमण करने पर मनुष्यों ने देवताओं से पूछा-"अब हमारा ऋषि कौन-होगा?" तब देवताओं ने उन्हें 'तर्क' नामक ऋषि प्रदान किया।
संक्षेप में सार इतना ही है कि ऋषियों के समय में आगम का प्राधान्य रहा। उनके अभाव में उन्हीं की वाणी के आधार पर दर्शनशास्त्र का विकास
हुआ।
जैन दर्शन की आस्तिकता
जैन दर्शन परम अस्तिवादी है। इसका प्रमाण है—अस्तिवाद के चार अंगों की स्वीकृति। उसके चार विश्वास हैं-आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और