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अपर्यवसित
अपवर्तन
अपोह
अभव्य जीव
अभिनिवेश..
अभेदोपचार
अर्पितानर्पित
क
अवग्रह अवधिज्ञान
( अवधिज्ञानी)
अविद्या
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जैन दर्शन और संस्कृति
पर, अन्य का न होना होता है, वह व्यतिरेकी सम्बन्ध कहलाता है ।
पर्यवसान का अर्थ है अन्त । जिसका अन्त न हो, वह अपर्यवसित कहलाता है । जिसका अन्त हो, वह सपर्यवसित कहलाता है
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उद्वर्तना से विपरीत अवस्था (देखें उद्वर्तना) । बंधे हुए कर्मों की स्थिति और रस को अपवर्तन में पुरुषार्थ (प्रयत्न) द्वारा कम (मंद) किया जाता है । जिसके द्वारा संशय के कारणभूत विकल्प का निराकरण किया जाता है, वह अपोह है । अपोह में गहन चिन्तन अपेक्षित होता है ।
जैन दर्शन के अनुसार संसार में दो प्रकार के जीव हैं— मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता रखने वाले और न रखने वाले। पहले प्रकार के भव्य और सरे प्रकार के अभव्य जीव कहलाते हैं ।
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मिथ्या आग्रह |
अर्थ.
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किन्हीं दो (वस्तु, पर्याय / आदि) में किसी अपेक्षा - विशेष से एकत्व का अध्यारोप करना अभेदोपचार कहलाता है । 'अभेद' है— एकत्व और 'उपचार' का अर्थ है—अध्यारोप करना ।
'अमुक अपेक्षा से होना' अर्पित है, 'अमुक अपेक्षा से न होना' अनर्पित है । स्यादवाद में अपेक्षा दृष्टि से आधार पर वस्तु-धर्म की विवक्षा की जाती है। यह 'अर्पितानर्पित' पद्धति है ।
देखें, ईहा ।
इन्द्रियों की सहायता के बिना सीधे चेतना द्वारा दूर स्थित मूर्त पदार्थों को जान लेना अवधिज्ञान हैं और अवधिज्ञान प्राप्त व्यक्ति अवधिज्ञानी कहलाता है ।
वेदांत दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही सत्य हैं. जगत् मिथ्या है। यह बांध विद्या है। इससे विपरीत बोध अविद्या है।