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________________ जैन दर्शन और संस्कृति जिसमें राग-द्वेष के उपशमन की साधना नहीं होती, वह मध्यस्थ या तटस्थ 'नहीं हो सकता । मध्यस्थ भाव की प्राप्ति किए बिना कोई भी शास्त्रज्ञ नहीं हो सकता । उपाध्यायजी की भाषा में मध्यस्थ भाव ही शास्त्र का अर्थ है । वह मध्यस्थ भाव से ही सही रूप में जाना जाता है । शास्त्रज्ञ लोग धर्मवाद के स्थान पर विवाद को महत्त्व दे रहे थे । उनको २५६ लक्ष्य कर कहा गया " शमार्थं सर्वशास्त्राणि, विहितानि मनीषिभिः । स एव सर्वशास्त्रज्ञ, यस्य शांत सदा मनः ॥ “मनीषियों ने शास्त्रों का निर्माण शान्ति के लिए किया । सब शास्त्रों को जानने वाला वही है, जिसका मन शान्त है । " सारांश यह है-धर्म के नाम पर अशान्ति को उभारने वाला शास्त्रज्ञ नहीं हो सकता । जो स्वयं अशान्त है, वह भी शास्त्रज्ञ नहीं हो सकता । अभ्यास १. ' श्रद्धावाद - हेतुवाद' की दृष्टि से आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने जो नया चिन्तन दिया, उसे अपने शब्दों में प्रस्तुत करें । २. “ प्राचीनता और नवीनता का संघर्ष सभी क्षेत्रों में चलता है" इसे प्रकट करते हुए किन्हीं दो विचारक आचार्यों के विचारों के आधार पर उस संघर्ष का समाधान प्रस्तुत करें। ३. “कलियुग में सब कुछ बुरा ही होगा" - इस विचार को किसने चुनौती दी ? ४. अध्यात्म के मुख्य उन्मेष कौन-कौन से हैं ? ५. " धर्म का फल वर्तमान काल में ही होता है”- — इस चिन्तन को किन आचार्यों ने किस प्रकार पुष्ट किया ? ६. "सर्वधर्म समभाव रखने पर ही व्यक्ति सही अर्थ में शास्त्रज्ञ हो सकता है ” — इसे सिद्ध करें । 000
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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