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जैन दर्शन और संस्कृति प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकाय—ये उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। इनमें आत्मानुभूति की वाणी आज भी उनके अन्तर-दर्शन की साक्षी है।
विक्रम की दसवीं शताब्दी में आचार्य नेमिचन्द्र चक्रवर्ती हुए। उन्होंने गोम्मटसार और लब्धिसार-क्षपणसार-इन दो ग्रन्थों की रचना की। ये बहुत ही महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। ये प्राकृत-शौरसेनी भाषा की रचनाएं हैं।
श्वेताम्बर आचार्यों ने मध्ययुग में जैन-महाराष्ट्री में लिखा। विक्रम की तीसरी शती में शिवशर्म सूरि ने कम्मपयडी, उमास्वाति ने जम्बूद्वीप समास लिखा। विक्रम की छठी शताब्दी में संघदास क्षमाश्रमण ने वसुदेवहिण्डी नामक एक कथा-ग्रन्थ लिखा, इसका दूसरा खण्ड धर्मसेनगणी ने लिखा। इसमें वासुदेव के पर्यटन के साथ-साथ अनेक लोक-कथाओं, चरित्रों, विविध वस्त्रों, उत्सवों और विनोद-साधनों का वर्णन किया गया है। जर्मन विद्वान् आल्सडोर्फ ने इसे बृहत्कथा के समकक्ष माना है।
विक्रम की सातवीं शताब्दी में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण हुए। विशेषावश्यक भाष्य इनकी प्रसिद्ध कृति है। यह जैनागमों की चर्चाओं का एक महान् कोष है। विशेषणवती, बृहत्-संग्रहणी और बृहत्-क्षेत्रसमास भी इनके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं।
हरिभद्रसूरि विक्रम की आठवीं शती के विद्वान् आचार्य हैं। 'समराइच्च-कहा' इनका प्रसिद्ध कथा-ग्रन्थ है। संस्कृत-युग में भी प्राकृत-भाषा में रचना का क्रम चलता रहा है।
मध्यकाल में निमित्त, गणित, ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र, आयुर्वेद, मन्त्रविद्या, स्वप्न-विद्या, शिल्प-शास्त्र, व्याकरण, छन्द, कोश आदि विषयक अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं।
संस्कृत साहित्य
संस्कृत और प्राकृत—ये दोनों श्रेष्ठ भाषाएं हैं और ऋषियों की भाषाएं हैं। इस तरह आगम-प्रणेताओं ने संस्कृत-प्राकृत की समकक्षता स्वीकार करके संस्कृत का अध्ययन करने के लिए जैनों का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
संस्कृत भाषा तार्किकों के तीखे तबाणों के लिए तूणीर बन चुकी थी। इसलिए इस भाषा का अध्ययन करने वालों के लिए अपने विचारों की सुरक्षा खतरे में थी। अत: सभी दार्शनिक संस्कृत भाषा को अपनाने के लिए तेजी से पहल करने लगे।
जैनाचार्य भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहे। वे समय की गति को पहचानने वाले थे, इसलिए उनकी प्रतिभा इस ओर चमकी और स्वयं इस ओर